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होता तो कुछ और ही ठाठ रहता । पर क्या करें अपना ही बोया बीज है ।
सागरजी ने न जाने किस मुहूर्त एवं कैसे शुकनों से नगर में प्रवेश किया कि दूसरे ही दिन कई साधु दादावाड़ी की ओर जा रहे थे उन्होंने न जाने मुसलमान से छेड़-छाड़ की थी या कोई गुप्त अपराध था उस मुसलमान ने सागरों की खूब पूजा की ।
कुछ दिनों के बाद हरिसागरजी ने तपागच्छ के श्रावकों को बुलवा कर पूछा कि तुम कोई लोग हमारे पास या व्याख्यान में नहीं आते हो इसका क्या कारण है ? तपागच्छ वालों ने उत्तर 'दिया कि आपके गच्छ के श्रावकों ने बिना श्री संघ की आज्ञा दादाजी का पगलिया हीराबाड़ी के मन्दिर में रख दिया। हम लोगों की इच्छा है कि दादाजी का पगलिया मन्दिर में नहीं पर दादावाड़ी में ही रखा जाय ।
सागरजी - क्यों दादाजी का पगलिया मन्दिर में रखा जाय तो क्या हर्जा है। सिद्धचक्रजी के गटा में आचार्य भगवान के पास में बैठे हैं या नहीं ?
श्रावक - सिद्धचक्रजी के गटा में तो उपाध्याय और साधु श्री भगवान के पास ही बैठे हैं फिर आप भी वहाँ जाकर क्यों नहीं बैठ जाते हो ?
सागरजी -हमतो साधु हैं इसलिए नहीं बैठ सकते
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श्रावक -- तो फिर दादाजी कौन हैं ? वे भी तो साधु ही हैं ।
सागरजी - वे तो महा प्रभावशाली हैं अतएव उनका पगलिया मन्दिर में स्थापन करने में कोई दोष नहीं है। यदि दोष होता तो सिद्धचक्र के गटा में तीर्थङ्करों और सिद्धों के बराबर उनकी
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