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मन्दिर बनावें । फिर आपको तस्करों की भांति गुपचुप काम करने की जरूरत न रहेगी। याद रहे कि तपागच्छ वाले अपनी मातबरी से ही शान्ति कर बैठे हैं पर जब वे धारेंगे तो अपने मन्दिरों से ऐसे पगलियों को उठा कर दूर रखने में मिनट भी नहीं लगावेंगे ।
खरतरों में जाटड़ों या गंवारों से अधिक अकल नहीं है क्योंकि दादाजी के पगलिये रखने का तो यह लोग मिथ्या हट करते हैं और साथ ही दादाजी के पुजारी जो अन्य गच्छीय हजारों लोग हैं उनको दादाजी के दर्शन करने से वंचित रखने की भी कोशिश करते हैं । यह सद्ज्ञान का विकाश है या विध्वंश जरा आंख मिलाकर सोचें समझें और विचार करे ।
खैर ! सागरजी ने केवल तपा खरतरों में ही वैमनस्य फैला कर संतोष नहीं माना है पर आपने तो खरतरे खरतरों में भी डलवादी । प्रभावना (लेए) जैसी एक साधारण वस्तु है जो हर एक को दी जाती है पर खरतरों ने खास केवलचन्दजी खजानची और नेमीचन्दजी खजानची जो खरतर हैं लेण में उन दोनों के घर को टाल दिया। इतनाही क्यों पर नागोर की ओसवाल याति में ऐसा प्राचीन समय से रिवाज चला आ रहा था कि - किसी भी समुदाय के साधुओं के दर्शनार्थ बाहर से कोई भी -सज्जन आत्रे और वह मिश्री या नारियलादि बेंचना चाहे तो सब समुदायवालों को एकत्र कर रजात्रन्दी से ही सब घरों में
देते थे परन्तु कई लोग दर्शनार्थी नागौर में भाकर चाहे वे पीतल के थालकिया हो या चाहे चांदी की कटोरियां बेची हों पर चले ते रिवाज को तोड़ चन्द घरों में बेंचना यह लेण नहीं पर एक ओसवाल जाति के प्रेम का टुकड़ा २
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