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( २४ ) इतने दिन सुरांणाजी कानों सेहीसुनते थे पर आज तो आपने ठीक अनुभव भी कर लिया और जैन साधुओं की साधुता का भी आपको परिचय हो गया तथा आप यह भी जान गये कि इन लोगोंका इरादा झगड़ा मिटाने का नहीं पर बढ़ाने का ही है। थोड़ी देर बात कर आप ने हताश हो वहाँ से उठकर अपना रास्ता पकड़ा। इस पर सभ्य समाज समझ सकता है कि खरतरों का कितना अन्याय है। कुदरत ने सोच समझ कर ही चन्द प्रामों में मुट्ठी भर खरतरों को झगड़ा करने को हो रखा है। यदि अधिक होते तो न जाने क्या कर डालते। पगलिया लेगये खरतरे और आक्षेप करना तपागच्छ वालों पर । तपागच्छादि पूर्व आचार्यों को पेट भर निंदा करना और उसे तपागच्छ वाले नहीं सुनें जिसका सागरजी दंड बतलाते हैं । यह कितनी नादरशाही है पर यह सब तपागच्छ वालों की अनुचित उदारता का ही कटुक फल है । ज्यों ज्यों तपागच्छ वाले हरेक काम में शान्ति रखते गये त्यों त्यों खरतरों का हौसला बढ़ता गया । आज खरतरों से तीन गुनी समुदाय तपागच्छ की है जिसमें भी खरतरे तपों को मातहत बनाना चाहते हैं। पर इसका नतीजा क्या हुआ है यह खास खरतरों से भी छिपा हुआ नहीं है। खैर, इन दोनों सुरांणाजी के अलावा भी कई शान्ति इच्छुक सज्जनों ने इस झगड़े को शान्त करने के लिये कई बार प्रयत्न किया पर इसमें वे सबके सब निष्फल ही निकले। इससे पाठक स्वयं सोच सकते हैं कि खरतरे कितने दुराग्रही होते हैं। ___ यदि खरतरों का इरादा यह हो कि तपों की कमजोरी देख हम सब मन्दिरों में दादाजी के पगलिये रख दें । पर यह तो जब ही बन सकेगा कि कुछ घर का गोपी चन्दन लगा कर एकाधा
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