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( २० ) नागौर आ रहे हैं। तपागच्छ वालों ने तो यहाँ तक इरादा कर लिया कि इस झगड़े को हरिसागरजी पर ही रख दिया जाय कि वे निपटारा करवादें। पर वे जब पार्श्वनाथ फलौदी आये नागौर के खरतरे बहां गये तो उनके मुँह से ऐसे उदंड वाक्य निकल पड़े कि एक हरिवाड़ी के मन्दिर में ही क्या पर मैं तो सब मन्दिरों और उपाश्रयों में दादाजी के पगलिये स्थापित करवा दूंगा। मुझे कोई रोकने वाला है ही नहीं, इत्यादि--
जब यह सुना कि हरिसागरजी कल यहां आने वाले हैं तब तपागच्छ वालों ने रात्रि में एकत्र हो यह निर्णय किया कि यदि हरिसागरजी को अपने उपाश्रय में उतारा जाय और वे यहां अपने उपाश्रय में कभी दादाजी का पगलिया रख दिया तो उल्टा क्लेश बढ़ेगा और वह तपागच्छाचार्यों की भर पेट निंदा भी करते हैं। अतएव सबसे अच्छा है कि न तो अपने उपाश्रय में हरिसागर जी को उतारा जाय और न कोई तपागच्छ वाला उसके साथ किसी प्रकार का व्यवहार ही रखे क्योंकि जहां जाने पर राग-द्वेष बढ़ता हो वहाँ नहीं जाना ही अच्छा है। बस, यह ठहराव कर लिया कि जहाँ तक हीरावाड़ी के मन्दिर में पगलिया रक्खा है उसका समाधान न हो जाय वहाँ तक खरतरों के साथ किसी प्रकार का व्यवहार नहीं रखा जाय ।।
दूसरे दिन हरिसागरजी का नागोर में आगमन हुआ । तपागच्छ वाले अपने प्रस्ताव के मुवाफिक न तो हरिसागरजी के सामने गये और न अपने उपासरा में ठहराया । सागरजी कालीपोल का उपासरा, जहाँ साध्वियाँ ठहरी हुई थी, खाली करवा कर ठहर गये । सागरजी की आँखें खल गई कि सकल श्रीसंध का संगठन
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