Book Title: Mrutyunjaya
Author(s): Birendrakumar Bhattacharya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 2
________________ आमुख (प्रथम संस्करण से) लेखक के नितान्त अपने दृष्टिकोण से देखें तो पुस्तक के लिए किसी आमुख की आवश्यकता नहीं होती। स्वाभाविकता इसी में रहती है कि पुस्तक और पाठक के बीच सम्प्रेषण निरवरोध हो । मेरे जैसे लेखक के लिए तो, जो अपनी रचना के प्रति अनासक्त रहना चाहता हो, आमुख लिखना और भी दुष्कर हो जाता है। पर प्रस्तुत पुस्तक के प्रसंग में कुछ लिखना शायद उपयोगी हो। हमारोयहाँ साहित्यिक विधा के रूप में उपन्यास पश्चिम से आया; और देखते-देखते इसने यहाँ घर कर लिया। भले ही हमारी परम्परा काव्य को विशेष मान्यता देती आयी, पर पाठक-जगत् ने उपन्यास को फिर भी युग का प्रतिनिधि सृजन-रूप माना। रवि बाबू जैसी महान् कवि-प्रतिभाओं तक ने महत्त्वपूर्ण उपन्यास लिखे और इस विधा को गरिमा प्रदान की। फिर तो उपन्यास न केवल समाज के लिए दर्पण बना, बल्कि सामयिक विचार-चिन्तन की अभिव्यक्ति का माध्यम भी हआ। मैंने स्वयं जब सामाजिक वास्तविकता की भाव-प्रेरणा पर उपन्यास लिखना प्रारम्भ किया, तब असमिया में यह विधा काफ़ी प्रगति कर चुकी थी। भविष्य इसका कैसा और क्या होगा, यह आशंका समीक्षकों के मन में अवश्य थी। हाँ, विवेकी समीक्षक उस समय भी आश्वस्त थे। उनके विचार से असमी जीवन की विविधरूपता के कारण लेखक को सामग्री का अभाव कभी न होगा । और सचमुच देश के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र की सामाजिक वास्तविकता को आपसी तनावों ने ऐसा विखण्डित कर रखा था कि लेखक के लिए सदाजीवी चनौती बनी रहे। जितना कुछ अब तक मैंने लिखा वह सब न अमृत ही है, न निरा विप । कुछ है वह तो ऐसे एक व्यक्ति का प्रतिविम्ब मात्र, जो अमृत की उपलब्धि के लिए वास्तविकता के महासागर का मन्थन करने में लगा हो । मेरे प्रमुख उपन्यासों के प्रमुख पात्रों में ऐसा कोई नहीं जिसके अन्तर्मानस में एक सुन्दर और सुखद समाज की परिकल्पना हिलोरती न रहती हो । कहीं व्यक्तिगत रूप से तो कहीं सामुहिक रूप से, वे सभी इस महामारियों के मारे वर्तमान जीवन-जगत् की बीभत्स वास्तविकता को अस्वीकार ही अस्वीकार करने रहते हैं । किन्तु सचाई यह भी है कि

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