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मृत्यु समय, पहले और पश्चात्.
करें, उसका अर्थ क्या है ? सभी जगह, कोई ऐसे हैं ही नहीं जिनके बच्चे मरे नहीं हों! ये तो सांसारिक ऋणानुबंध हैं, हिसाब लेन-देन के हैं। हमारे भी बेटा-बेटी थे, पर वे मर गए। मेहमान आया था, वह मेहमान चला गया। वह अपना सामान ही कहाँ है? हमें भी नहीं जाना क्या? हमें भी जाना है वहाँ, यह क्या तूफ़ान फिर ? इसलिए जो जीवित हैं, उन्हें शांति दो। गया वह तो गया, उसे याद करना छोड़ दो। यहाँ जीवित हों, जितने आश्रित हों उन्हें शांति दें, उतना अपना फ़र्ज़ यह तो गए हुए को याद करते हैं और इन्हें शांति नहीं दे सकते हैं। यह कैसा ? अतः फ़र्ज़ चूक जाते हो सारे । आपको ऐसा लगता है क्या ? गया वह तो गया । जेब में से लाख रुपये गिर गए और वापस नहीं मिले तो हमें क्या करना चाहिए? सिर फोड़ना चाहिए?
अपने हाथ का खेल नहीं है यह और उस बेचारे को वहाँ दुःख होता है। हम यहाँ दु:खी होते हैं, उसका असर उसे वहाँ पहुँचता है। तो उसे भी सुखी नहीं होने देते और हम भी सुखी नहीं होते। इसलिए शास्त्रकारों ने कहा है कि 'जाने के बाद उपाधी मत करना।' इसलिए हमारे लोगों ने क्या किया कि 'गरुड़ पुराण बिठाओ, फलाँ बिठाओ, पूजा करो, और मन में से निकाल दो।' आपने ऐसा कुछ बिठाया था? फिर भी भूल गए, नहीं?
प्रश्नकर्ता: पर वह भुलाया नहीं जाता। बाप-बेटे के बीच व्यवहार इतना अच्छा चल रहा था । इसलिए वह भुलाया जाए ऐसा नहीं है।
दादाश्री : हाँ, भूल सकें ऐसा नहीं है, मगर हम नहीं भूलें तो उसका हमें दुःख होता है और उसे वहाँ दुःख होता है। इस तरह अपने मन में उसके लिए दुःख मनाना, वह पिता के तौर पर अपने लिए काम का नहीं है।
प्रश्नकर्ता: उसे किस प्रकार दुःख होता है?
मृत्यु समय, पहले और पश्चात्...
दादाश्री : हम यहाँ दुःखी हों, उसका असर वहाँ पहुँचे बगैर रहता नहीं। इस जगत् में तो सब फोन जैसा है, टेलीविज़न जैसा है यह संसार! और हम यहाँ उपाधी करें तो वह वापस आनेवाला है?
प्रश्नकर्ता ना।
दादाश्री : किसी भी रास्ते आनेवाला नहीं है?
प्रश्नकर्ता: ना!
दादाश्री : तो फिर उपाधी करें, तो उसे पहुँचती है और उसके नाम पर हम धर्म-भक्ति करें, तो भी उसे हमारी भावना पहुँचती है और उसे शांति होती है। उसे शांति पहुँचाने की बात आपको कैसी लगती है ? और उसे शांति मिले यह आपका फ़र्ज़ है न? इसलिए ऐसा कुछ करो न कि उसे अच्छा लगे । एक दिन स्कूल के बच्चों को ज़रा पेड़े खिलाएँ, ऐसा कुछ करो ।
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इसलिए जब आपके बेटे की याद आए, तब उसकी आत्मा का कल्याण हो ऐसा बोलना । 'कृपालुदेव' का नाम लोगे, 'दादा भगवान' कहोगे तो भी काम होगा। क्योंकि 'दादा भगवान' और 'कृपालुदेव' आत्म स्वरूप में एक ही है। देह से अलग दिखते हैं, आँखों से अलग दिखते हैं, परन्तु वस्तुतः एक ही हैं। यानी महावीर भगवान का नाम लोगे तो भी एक ही बात है । उसकी आत्मा का कल्याण हो उतनी ही हमें निरंतर भावना करनी है। हम उसके साथ निरंतर रहे, साथ में खायापीया, इसलिए उसका कल्याण कैसे हो ऐसी भावना करनी चाहिए। हम परायों के लिए अच्छी भावना करते हैं, तो यह तो अपने स्वजन के लिए क्या नहीं करें?
रोते हैं, स्व के लिए या जानेवाले के लिए? प्रश्नकर्ता : हमारे लोगों को पूर्वजन्म की समझ है, फिर भी घर