Book Title: Mohan Jo Dado Jain Parampara aur Praman Author(s): Vidyanandmuni Publisher: Kundkund Bharti Trust View full book textPage 6
________________ कर चकित किया है कि जैन संस्कृति पुरातथ्यों की कसौटी पर कमसे-कम ५००० वर्ष (३२५० ई०पू०) पुरानी तो है ही। मोहनजो-दड़ो की सीलों पर योगियों की जो काउस्सग्ग (कायोत्सर्ग) दिगम्बर मुद्राएँ. 'अंकित हैं उनसे उक्त स्थापना और दृढ़ हुई है। मोहन-जो-दड़ो के उत्खनन से जो निष्कर्ष सामने आये हैं वे इस प्रकार हैं१. जैनों के प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ अध्यात्म (आत्मविद्या) लता-मण्डप वेष्टित भगवान् बाहुबली के प्रादिप्रवर्तक हैं। यह तथ्य मोहन-जो-दड़ो की सीलों से प्रमाणित [देखिये ; परिशिष्ट १, टिप्पणी ६] होता है। २. योगविद्या का प्रवर्तन क्षत्रियों ने किया। ब्राह्मणों ने इसे उन्हीं से सीखा। ३. मोहन-जो-दड़ो की संस्कृति में महायोगी ऋषभनाथ की बहुत प्रतिष्ठा थी; यही कारण है कि सीलों पर जहाँ एक ओर उनकी कायोत्सर्ग-मग्न नग्न मुद्रा मिलती है, वहीं उनका लांछन बैल भी अपने समानुपातिक सौंदर्य में यत्र-तत्र दिखायी देता है।' ४. खुदाई में जो सीलें मिली हैं उनसे योग-परम्परा के और अधिक प्राचीन होने की संभावना पुष्ट होती है । इनसे हम इस निष्कर्ष पर भी पहुँचते हैं कि उस युग में जैन मूर्तिशिल्प का भी काफी विकास हो चुका था। दिगम्बर मुनियों की कैसी मुद्रा हो, उनके चतुर्दिक कैसा वातावरण अंकित किया जाए; ऐसे कौन से प्रतीक हो सकते हैं जिन्हें चित्रित करने से उनकी गरिमा का बोध हो, इत्यादि पर भी काफी गम्भीरता से विचार हुआ था । वृषभ, सिंह, महिष, गज, गैंडा आदि प्राणियों की शरीर-रचना' का भी अध्ययन उस समय के कलाशिल्पियों को था। सीलों में जो संयोजन (कम्पोजिशन) है, वह सामान्य नहीं है अपितु एक दीर्घकालिक परम्परा का द्योतक है। यह मूर्ति भी कायोत्सर्ग मुद्रा में है परन्तु यदि हमारे पुरातत्त्वविद् इन सीलों की गहन समीक्षा करते हैं तो इसके शिरोभाग पर कोई प्रतीक नहीं जैन शिल्प के इतिहास/प्रागैतिहास में एक नया अध्याय खोला जा है । यह भी उसी महराब (प्रार्च) में सकता है। स्थित है, अर्थात् मूर्ति सीधी खड़ी है और दोनों हाथ बराबर में दोनों प्रोर ५. निर्विवाद है कि मोहन-जो-दड़ो की संस्कृति में प्राग्वैदिक लटक रहे हैं । सर जॉन मार्शल ने इस संस्कृति के ऐसे अवशेष मिले हैं, जिनसे जैनों की प्राचीनता पुष्ट पार्च को एक वक्ष निरूपित किया है। होती है। श्री रामप्रसाद चन्दा' तथा श्री ऐरावत महादेवन्१२ [देखिये ; परिशिष्ट १, टिप्पणी ३] मोहन-जो-दड़ो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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