Book Title: Mohan Jo Dado Jain Parampara aur Praman
Author(s): Vidyanandmuni
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 20
________________ चन्द्रबिन्दु होता है जो क्रमशः लोकाग्र और निर्वाण का परिचायक है । 'स्वस्ति' का एक अर्थ कल्याण भी है । ___ 'त्रिशूल' दूसरा महत्त्वपूर्ण प्रतीक है, जो सिन्धुघाटी की सीलों पर तो अंकित है ही, जैन ग्रन्थों में भी जिसकी चर्चा मिलती है । त्रिशूल आज भी लोकजीवन में कुछ शैव साधुनों द्वारा रखा जाता है । जैन परम्परा में त्रिशूल को रत्नत्रय का प्रतिनिधि माना गया है । त्रिरत्न हैं : सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र । इसकी चर्चा 'धवला' २४, 'पादिपुराण' २५, 'पुरुदेव चम्पू'२४ में मिलती है । त्रिशूल को जैनों का 'जैत्र' अस्त्र कहा गया है। तीसरा है कल्पवृक्ष । यह कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़ी ऋषभमूर्ति के परिवेष्टन के रूप में उत्कीरिणत है। 'आदिपुराण' तथा 'संगीत समयसार' में इसके विवरण मिलते हैं ।२७ त्रिशूल अर्हदास ने मृदु लतालंकृत मुखः कह कर मृदु लता-पल्लव का आधार उपलब्ध करा दिया है ।२८ - भरत चक्रवर्ती श्रद्धाभक्तिपूर्वक ऋषभमूर्ति के सम्मुख अंजलि बाँधे नमन-मुद्रा में उपस्थित हैं। प्राचार्य जिनसेन, विमलसूरि आदि ने भरत की इस मुद्रा का तथा उनके द्वारा ऋषभार्चन का वर्णन किया है ।२६ तुलनात्मक अध्ययन और व्यापक अनुसंधान से हम सहज ही इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि मोहन-जो-दडो की सील पर जो रूपक अंकित है वह जन-जीवन के लिए सुपरिचित, प्रौढ़, प्रचलित रूपक है अन्यथा वह वहाँ से छन कर कवि-परम्परा में इस तरह क्यों कर स्थापित होता? एक तथ्य और ध्यान देने योग्य है कि ब्राह्मणों को अध्यात्मविद्या क्षत्रियों से पूर्व प्राप्त नहीं थी। उन्हें यह क्षत्रियों से मिली, जिसका वे ठीक से पल्लवन नहीं कर पाये। 'छान्दोग्य उपनिषद्' में इसकी झलक मिलती है ।३० इससे पहले कि हम इस पुस्तिका को समाप्त करें कुछ ऐसे तथ्यों को और जानें जिनका जैनधर्म और जैन समाज की मौलिकतानों से सम्बन्ध है। जैनधर्म आत्मस्वातन्त्र्यमूलक धर्म है। उसने न सिर्फ मनुष्य बल्कि प्राणिमात्र की स्वतन्त्रता का प्रतिपादन किया है। जीव तो साँथिया (२) १८ मोहन-जो-दड़ो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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