Book Title: Mohan Jo Dado Jain Parampara aur Praman
Author(s): Vidyanandmuni
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 15
________________ हैं, ठीक वैसे ही इतिहास से हमें पुरातथ्यों को निर्धान्त सूचना मिलती है। परम्परा और इतिहास में किंचित् अन्तर है। इतिहास स्थूल/ ठोस तथ्यों पर आधारित होता है; परम्परा लोकमानस में उभरती और आकार ग्रहण करती है। एक पीढ़ी जिन आस्थाओं, स्वीकृतियों और प्रवचनों को आगामी पीढ़ी को सौंपती है, परम्परा उनसे बनती है। परम्परागों का कोई सन्-संवत् नहीं होता। वैसे इस शब्द के नानार्थ हैं । एक अर्थ पुरासामग्री भी है । परम्परा अर्थात् एक सुदीर्घ अतीत से जो अविच्छिन्न चला आ रहा है वह । योगियों की भी एक अविच्छिन्न अटूट परम्परा रही है। योग-विद्या क्षत्रियों की अपनी मौलिकता है। क्षत्रियों ने ही उसे द्विजों को हस्तान्तरित किया ।' ऐसा लगता है कि सिन्धुघाटी के उत्खनन में प्राप्त सीलें एक सुदीर्घ परम्परा की प्रतिनिधि हैं । वे आकस्मिक नहीं हैं, अपितु एक स्थापित सत्य को प्रकट करती हैं। भारतीय इतिहास, संस्कृति और साहित्य ने इस तथ्य को पुष्ट किया है कि सिन्धुघाटी की सभ्यता जैन सभ्यता थी।" सिन्धुघाटी के संस्कार जैन संस्कार थे। इससे यह उपपत्ति बनती है कि सिन्धुघाटी में प्राप्त योगमूर्ति, ऋग्वैदिक वर्णन ; तथा भागवत, विष्णु आदि पुराणों में ऋषभनाथ की कथा आदि इस तथ्य के साक्ष्य हैं कि जैनधर्म प्राग्वैदिक ही नहीं वरन् सिन्धुघाटी सभ्यता से भी कहीं अधिक प्राचीन है। श्री नीलकण्ठदास साहू के शब्दों में : 'जैनधर्म संसार का मूल अध्यात्म धर्म है । इस देश में वैदिक धर्म के आने से बहुत पहले से ही यहाँ जैनधर्म प्रचलित था। खूब संभव है कि प्राग्वैदिकों में शायद द्रविड़ों में यह धर्म था। कुछ ऐसे शब्द हैं, जो जैन परम्परा में रूढ़ बन गये हैं। डॉ० मंगलदेव शास्त्री का कथन है कि 'वातरशन' शब्द जैन मुनि के अर्थ में रूढ़ हो गया था। उनकी मान्यता है कि 'श्रमण' शब्द की भाँति ही 'वातरशन' शब्द मुनि-सम्प्रदाय के लिए प्रयुक्त था। मुनिपरम्परा के प्राग्वैदिक होने में दो मत नहीं हैं । डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल भारतीय इतिहास/वाङ्गमय के जाने-माने विद्वान् रहे हैं। उन्होंने भी स्वीकार किया है कि भारत जैन परम्परा और प्रमाण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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