Book Title: Mohan Jo Dado Jain Parampara aur Praman
Author(s): Vidyanandmuni
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 12
________________ जितना भी यथार्थमूलक तथा भव्य बना सकते हैं, बनाने का प्रयत्न करते हैं । इनमें भगवान् भला कहाँ हैं ? कैसे हो सकते हैं ? फिर भी हैं और हम उन्हें पा सकते हैं । मूर्ति की भव्यता इसमें है कि वह स्वयं साधक में उपस्थित हो और साधक की सार्थकता इसमें है कि वह मूर्ति में समुपस्थित हो। इन दोनों के तादात्म्य में ही साधना की सफलता है। मोहन-जो-दड़ो से प्राप्त सीलों (मुद्राओं) की सब में बड़ी विशेषता है कला की दृष्टि से उनका उत्कृष्ट होना। शरीर-गठन और कला-संयोजन की सूक्ष्मताओं और सौंदर्य की संतुलित/मानुपातिक अभिव्यक्ति ने इन सीलों को एक विशेष कला - संपूर्णता प्रदान की है। बहुत सारे विषयों का एक साथ सफलतापूर्वक संयोजन इन सीलों की विशेषता है। उक्त दृष्टि से भारत सरकार के केन्द्रीय पुरातात्त्विक संग्रहालय में सुरक्षित सील क्र. ६२०/१६२८-२९ समीक्ष्य है। इसमें जैन विषय और पुरातथ्य को एक रूपक के माध्यम से इस खूबी के साथ अंकित/ समायोजन किया गया है कि वह जैन पुरातत्त्व और इतिहास की एक प्रतिनिधि निधि बन गये हैं। न केवल पुरातात्त्विक अपितु इतिहास और परम्परा की दृष्टि से भी इस सील (मुद्रा) का अपना महत्त्व है। इसमें दायीं ओर नग्न कायोत्सर्ग मुद्रा में भगवान् ऋषभदेव हैं, जिनके शिरोभाग पर एक त्रिशूल है, जो रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र) का प्रतीक है । निकट ही नतशीश हैं उनके ज्येष्ठ पुत्र चक्रवर्ती भरत, जो उष्णीष धारण किये हुए राजसी ठाठ में हैं । वे भगवान् के चरणों में अंजलिबद्ध भक्तिपूर्वक नतमस्तक हैं। उनके पीछे वृषभ (बैल) है, जो ऋषभनाथ का चिह्न (पहचान) है। अधोभाग में सात प्रधान प्रामात्य हैं, जो तत्कालीन राजसी गणवेश में पदानुक्रम से पंक्तिबद्ध हैं। चक्रवर्ती भरत सोच रहे हैं : 'ऋषभनाथ का अध्यात्म-वैभव और मेरा पार्थिव वैभव !! कहाँ है दोनों में कोई साम्य ? वे ऐसी ऊँचाइयों पर हैं जहाँ तक मुझ अकिंचन की कोई पहुँच नहीं है।' भरत की यह निष्काम भक्ति उन्हें कमल-दल पर पड़े प्रोस-बिन्दु की भाँति निलिप्त बनाये हुए है । वे पाकिचन्य-बोधि से धन्य हो उठे हैं । १० मोहन-जो-दड़ो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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