Book Title: Manjil ke padav
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 191
________________ ज्ञान बड़ा या आचार ? प्रतिष्ठा का कारण राजपुरोहित राजदरबार में बहुत सम्मानित और आदरणीय थे । राजा भी उन्हें सम्मान देता था। जब वे आते, तब राजा खड़ा होकर राजपुरोहित का सम्मान करता। राजपुरोहित ने एक प्रयोग किया। जब वे राजदरबार से घर गए, रास्ते में कोषागार आया । राजपुरोहित ने वहां से दो मोती उठा लिए । खजांची यह देखकर अवाक् रह गया। वह चिन्तित बन गया। दूसरे और तीसरे दिन भी ऐसा ही हुआ। खजांची ने राजा को स्थिति से अवगत कराया। राजा ने जांच करवाई, सचाई सामने आ गई । दूसरे दिन राजपुरोहित दरबार में आए। राजा ने सम्मान नहीं दिया। राजपुरोहित समझ गए-दवा काम कर गई है। राजा ने पूछा-पुरोहितजी ! आपने मोती लिए? 'हां राजन् ! मैंने मोती लिए थे। मैं परीक्षा करना चाहता था।' 'किस बात की परीक्षा ?' 'राजन् ! मैं जानना चाहता था-ज्ञान बड़ा है या आचार ? मेरी जो पूजा-प्रतिष्ठा है, सम्मान है, वह ज्ञान के कारण है या आचार के कारण । मैंने यह परीक्षा करके देख लिया है—मेरा ज्ञान मेरे पास है । उसमें कोई फर्क नहीं पड़ा है। अन्तर आया है आचार में। मेरे आचरण से आपकी भौहें तन गई। मैंने समझ लिया-मेरी प्रतिष्ठा का कारण आचार है, ज्ञान नहीं।' समन्वय का मार्ग सामाजिक संदर्भ में हम विचार करें तो ज्ञान पीछे रह जाता है, आचार आगे आ जाता है। जहां समाज का प्रश्न है वहां आचार प्रधान बन जाता है । मनुस्मृति में कहा गया-आचारः प्रथमो धर्मः । दूसरी ओर यह भी कहा गया-ज्ञानं प्रथमो धर्मः । वस्तुतः ज्ञान और आचार-दोनों सापेक्ष हैं । जहां एक से दूसरे का सम्बन्ध स्थापित होता है वहां प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है आचार से और परोक्षतः सम्बन्ध होता है ज्ञान से । जहां आचार की उत्पत्ति का प्रश्न है वहां ज्ञान मुख्य हो जाता है। आचार आया कहां से ? आचार ज्ञान का फल है । इस अपेक्षा से 'पढमं नाणं तओ दया' का स्वर मुखरित हुआ। हम दोनों को अलग न करें। जो ज्ञान है, वही आचार है । जो आचार है, वही ज्ञान है । दशवैकालिक सूत्र में वनस्पति की दस अवस्थाएं बताई गईं, उनमें पहली अवस्था है बीज और दसवीं अवस्था है बीज । शेष आठ अवस्थाएं इन दोनों के मध्य में हैं । ज्ञान भी बीज है और आचार भी बीज है। इन दोनों के बीच हमारे जीवन की सारी शृंखला चलती है। न ज्ञान की प्रधानता और न आचार की प्रधानता, किन्तु दोनों का समन्वय है। यह समन्वय का मार्ग ही हमारे जीवन के लिए प्रशस्त बन सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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