Book Title: Manjil ke padav
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 206
________________ १८८ मजिल के पड़ाव अस्तित्ववादी दर्शन के सन्दर्भ में इस सूक्त 'देहे दुक्खं महाफलं' को पढ़ें तो यह अभिवृत्यात्मक मूल्य का सूत्र है । शरीर मे जो दुःख पैदा हो, उस दुःख को झेलना । इस सूत्र के आधार पर एक गलत अर्थ भी हो गया। जैन और जैनेतर लोगों की एक धारणा बन गई-शरीर को कष्ट देना भी धर्म है। यह व्यापक धारणा है, किन्तु यह बात संगत नहीं क्रिया का आधार वस्तुतः कोई भी क्रिया उद्देश्य और लक्ष्य के आधार पर होती है। यदि हमारा लक्ष्य दुःख पाना है तो दुःख देना धर्म हो सकता है। यदि हमारा लक्ष्य दुःख पाना नहीं है तो दुःख देना धर्म नहीं हो सकता । हमारा लक्ष्य है मोक्ष । मोक्ष का अर्थ है-अनन्त आनन्द । वह अव्याबाध है । उस आनन्द में कोई बाधा नहीं आती। यदि तराजू के एक पल्ले में मोक्ष के सुख को रखा जाए और दूसरे पल्ले में दुनिया के सारे सुखों को केन्द्रीभूत कर रखा जाए तो भी मोक्ष के सुख का पलड़ा बहुत भारी रहेगा। जिसका लक्ष्य इतना बड़ा सुख पाना है, वह दुःख देने को धर्म कैसे मान सकता है ? बात कुछ और थी, समझ लिया गया कुछ और । यह विपर्यय हो गया। सताना पाप है कहा गया-सुख पाने के पथ पर चलो। उसमें यदि कोई बाधा आए. तो उसे समभाव से सहन करो। उसे नहीं झेलोगे तो आगे नहीं बढ़ पाओगे ।। इसका अर्थ यह मान लिया गया-शरीर को दुःख देना धर्म है। यह बात स्पष्ट होनी चाहिए--शरीर को दुःख देना धर्म नहीं है, दुःखों को सहन करना धर्म है। दूसरे को सताना या अपने आपको सताना-दोनों ही पाप हैं। शरीर को सताना नहीं है किन्तु अपने लक्ष्योन्मुख मार्ग पर चलना है। उस मार्ग में जो बाधा या रुकावट आए, उसे पार करना है इसीलिए कहा गया-भूख, प्यास, शीत, उष्ण, अरति और भय को अव्यथित चित्त से सहन करे। शरीर में जो कष्ट होता है, उसे सहन करना महान् धर्म है' खुह पिवासं दुस्सेज्जं, सीउण्हं अरई भयं । अहियासे अन्वहिओ, देहे दुक्ख महाफलं ॥ कष्ट और निर्जरा __ एक प्रश्न है---कर्म का बन्ध किसके होता है ? स्थूल शरीर के होता है या सूक्ष्म शरीर के । कहा गया-कर्म का बन्ध होता है सूक्ष्मतर शरीर, कर्म शरीर के । सूक्ष्मतर शरीर के बाद है तैजस शरीर और तैजस शरीर के १. दसधेआलियं ८/२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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