Book Title: Manjil ke padav
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 211
________________ इन्द्रिय-संयम १९३ है, अर्थ की भी एक सीमा है। वैदिक साहित्य में पुरुषार्थ चतुष्टयी का जो विश्लेषण हुमा है, उसमें बहुत सुन्दर समीक्षा की गई है-वह काम, जो अर्थ को बाधित न करे । वह अर्थ, जो काम को बाधित न करे। धर्म काम और अर्थ को बाधित न करे । अर्थ और काम धर्म को बाधित न करे। ये परस्पर अबाधित हों, बाधा पैदा करने वाले न हों। पुरुषार्थ चतुष्टयी में यह वैदिक व्यवहार है। कामो न बाधते योऽर्थ, सोर्थः कामं न बाधते । धर्म न बाधते तो च, धर्मश्च तौ न बाधते ॥ न बाधां जनयन्त्येते, परस्परमबाधिताः । वैदिको व्यवहारोऽयं, पुरुषार्थचतुष्टये ॥ चिन्तन की भिन्नता __ कहा गया-काम उतना होना चाहिए. जो अर्थ को बाधित न करे । उतना काम न हो कि व्यक्ति अर्थ का अर्जन ही न कर सके। इस स्थिति में जीवन भटक जाएगा, खाने को रोटी ही नही मिलेगी । अर्थ की भी सीमा कर दी गई-अर्थ का इतना अर्जन न करें, जो काम को बाधित करे । काम और अर्थ की सीमा यह है कि वे धर्म को बाधित न करें। धर्म की सीमा यह है-वह अर्थ और काम को बाधित न करे। एक व्यवस्थित संतुलन बताया गया। किसी भी प्रवृत्ति का अतिक्रमण न हो, अतिचार न हो, उनमें संतुलन बना रहे । हम इस बात पर जैन दृष्टिकोण से विचार करें। उसके अनुसार काम और अर्थ की सीमा है, जो मानसिक सुख को बाधित न करे, भावात्मक सुख को बाधित न करे । यह संयम से अनुप्राणित चिन्तन है । वैदिक दर्शन में सामाजिक व्यवहार की दृष्टि से सोचा गया। जैन दर्शन में त्याग और वैराग्य की दृष्टि से सोचा गया। वैदिक-दर्शन के केन्द्र में रहा समाज और गृहस्थ धर्म । जैन चिन्तन के केन्द्र में है मोक्ष और संन्यास । वैदिक और जैन चिन्तन में यह अंतर रहा है इसीलिए उनके दृष्टिकोण में कुछ भिन्नता मिलती है। जरूरी है संयम त्याग और संयम की शक्ति का विकास बहुत जरूरी है । जिस समाज में संयम और त्याग की शक्ति नहीं होती, उस समाज में असंतोष और अनियंत्रण की वृद्धि होती चली जाएगी। इतनी भोग-लिप्सा और विलासिता बढ़ जाएगी, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकेगी। आदमी कहां चला जाएगा, यह सोचा भी नहीं जा सकेगा। धर्म और अध्यात्म के बिना इन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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