Book Title: Manjil ke padav
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 209
________________ ४१ इन्द्रिय-संयम संभिन्नस्रोतोलब्धि काम एक है और रूप अनेक । एक ही काम के अनेक रूप बन जाते हैं । मनुष्य के पांच इन्द्रियां हैं। वास्तव में इन्द्रिय एक ही है । जब संभिन्नस्रोतोलब्धि का विकास होता है, तब हमारी यथार्थ स्थिति बनती है । उस समय केवल एक इन्द्रिय रह जाती है । एक इन्द्रिय से हम जो चाहें, काम ले लें । शरीर के किसी भी हिस्से से हम देख सकते हैं, सुन सकते हैं। एक ही इन्द्रिय है स्पर्शनेन्द्रिय । वह पूरे शरीर में व्याप्त है। शेष इन्द्रियों के अलग-अलग स्थान हैं। मनुष्य ने संकल्पशक्ति का विकास किया, देखना चाहा और चक्षु इन्द्रिय विकसित हो गया। जिस स्थान पर संकल्प अधिक केन्द्रित हुआ, वह विद्युत् चुंबकीय क्षेत्र बन गया । उसका क्रिस्टीलीकरण हो गया, वहां से दीखना शुरू हो गया, वह भांख बन गई। जिससे सुनना शुरू हो गया, वह कान बन गया किन्तु मूल स्थिति या विकास की स्थिति में जाएं तो इन्द्रिय एक बन जाती है । उसको एक बिशेषता माना गया और उसका नाम रखा गया-संभिन्नश्रोतोलब्धि । जो अलग-अलग स्रोत थे, वे परिपूर्ण होकर एक स्रोत बन गया, अखंड बन गया। यह इन्द्रिय मीमांसा है । धर्म की विशेषता एक प्रश्न है संयम का। यदि पूछा जाए-धर्म की सबसे बड़ी विशेषता कौन-सी है, जो पदार्थ विज्ञान में नहीं है। इसका उत्तर होगा-- धर्म ने चेतना की शक्ति को पहचाना है किन्तु पदार्थ विज्ञान ने चेतना की शक्ति को नहीं पहचाना । पदार्थ विज्ञान ने मुख्यतः पदार्थ की शक्ति को ही पहचाना है। धर्म ने चेतना की शक्ति को पहचाना है, इसका सबसे बड़ा प्रमाण है संयम या परिष्कार । जैसे-जैसे चेतना का विकास होता है वैसे-वैसे शक्ति का विकास होता है । चेतना का सर्वाधिक विकास मनुष्य में हुआ है। इसका अर्थ है-मनुष्य में संयम और नियंत्रण की शक्ति का, परिष्कार की शक्ति का भी सर्वाधिक विकास हुआ है। शक्ति और संयम | संसार के सभी प्राणियों में शक्ति है पर संयम और नियंत्रण की शक्ति नहीं है । एकेन्द्रिय से लेकर पशु-पक्षी तक में नियंत्रण की शक्ति नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220