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इन्द्रिय-संयम
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है, अर्थ की भी एक सीमा है।
वैदिक साहित्य में पुरुषार्थ चतुष्टयी का जो विश्लेषण हुमा है, उसमें बहुत सुन्दर समीक्षा की गई है-वह काम, जो अर्थ को बाधित न करे । वह अर्थ, जो काम को बाधित न करे। धर्म काम और अर्थ को बाधित न करे । अर्थ और काम धर्म को बाधित न करे। ये परस्पर अबाधित हों, बाधा पैदा करने वाले न हों। पुरुषार्थ चतुष्टयी में यह वैदिक व्यवहार है।
कामो न बाधते योऽर्थ, सोर्थः कामं न बाधते । धर्म न बाधते तो च, धर्मश्च तौ न बाधते ॥ न बाधां जनयन्त्येते, परस्परमबाधिताः ।
वैदिको व्यवहारोऽयं, पुरुषार्थचतुष्टये ॥ चिन्तन की भिन्नता
__ कहा गया-काम उतना होना चाहिए. जो अर्थ को बाधित न करे । उतना काम न हो कि व्यक्ति अर्थ का अर्जन ही न कर सके। इस स्थिति में जीवन भटक जाएगा, खाने को रोटी ही नही मिलेगी । अर्थ की भी सीमा कर दी गई-अर्थ का इतना अर्जन न करें, जो काम को बाधित करे । काम और अर्थ की सीमा यह है कि वे धर्म को बाधित न करें। धर्म की सीमा यह है-वह अर्थ और काम को बाधित न करे। एक व्यवस्थित संतुलन बताया गया। किसी भी प्रवृत्ति का अतिक्रमण न हो, अतिचार न हो, उनमें संतुलन बना रहे ।
हम इस बात पर जैन दृष्टिकोण से विचार करें। उसके अनुसार काम और अर्थ की सीमा है, जो मानसिक सुख को बाधित न करे, भावात्मक सुख को बाधित न करे । यह संयम से अनुप्राणित चिन्तन है । वैदिक दर्शन में सामाजिक व्यवहार की दृष्टि से सोचा गया। जैन दर्शन में त्याग और वैराग्य की दृष्टि से सोचा गया। वैदिक-दर्शन के केन्द्र में रहा समाज और गृहस्थ धर्म । जैन चिन्तन के केन्द्र में है मोक्ष और संन्यास । वैदिक और जैन चिन्तन में यह अंतर रहा है इसीलिए उनके दृष्टिकोण में कुछ भिन्नता मिलती है। जरूरी है संयम
त्याग और संयम की शक्ति का विकास बहुत जरूरी है । जिस समाज में संयम और त्याग की शक्ति नहीं होती, उस समाज में असंतोष और अनियंत्रण की वृद्धि होती चली जाएगी। इतनी भोग-लिप्सा और विलासिता बढ़ जाएगी, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकेगी। आदमी कहां चला जाएगा, यह सोचा भी नहीं जा सकेगा। धर्म और अध्यात्म के बिना इन
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