Book Title: Mahatma Gandhiji ke Jain Sant Sadhu Author(s): Publisher: ZZZ Unknown View full book textPage 6
________________ २) मुनि श्री जिनविजय जी महाराज राजस्थान की पुरातात्विक धरोहर के संरक्षक प्राच्यविद्या के अमूल्य ग्रंथों के संरक्षक तथा अध्येता मुनिवर जिनविजय जी का नाम भारतीय पुरातत्व विद्या के संशोधक विद्वानों के लिए गौरवास्पद है. भारतीय विद्या भवन के निदेशक, प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान जोधपुर के संचालक, ओरिएंटल सोसायटी जर्मनी के फेलो, हरिभद्र सूरि स्मारक तथा पुरातत्व संशोधक केंद्र चित्तौड के संस्थापक, भांडारकर रिसर्च इस्टिस्टयूट पुणे के सदस्य, और इस प्रकार की अनेक अध्ययन-संशोधन शालाओं से मुनिवर संलग्न रहे. वे भारतीय साहित्यधारा को समृध्दि और सामर्थ्य अर्पण करनेवाली विविध भावधाराओं के साक्षेपी संवाहक थे. रुपाहेली गाँव में भिलवाडा जिले में आपका जन्म हुआ. परमार वंशीय क्षत्रिय कुलोत्पन्न ज्ञानसाधक मुनिवर ने गाँधी आंदोलन में अपनी सक्रिय भूमिका निभाई. पंद्रहवें साल की उम्र में उन्होंने जैन धर्म में दीक्षा ग्रहण की. इक्कीसवें साल की उम्र में साधु वेष का त्याग किया. साधू जीवन चर्या के कार्यकाल में उन्होंने जल का शरीर से कदापि स्पर्श नहीं होने दिया. एक बार अपनाए वस्त्र को जीर्ण हो गल जाने तक जल से धो कर स्वच्छ करने का प्रयत्न नहीं किया. शरीर रक्षा हेतु केवल तीन वस्त्रों का आश्रय ग्रहण किया. कडाके की ठंड में भी कंबल का उपयोग नहीं किया. बिछौने के लिए खद्दर का ही उपयोग किया. केवल हस्तालिखित ग्रंथों का ही स्वाध्याय किया. छपे हुए ग्रंथ को अपने साथ कदापि आश्रय नहीं दिया. कभी किसी से पत्र-व्यवहार तक नहीं किया. सदा एक पोस्टकार्ड तक किसी के नाम नहीं लिखा. चातुर्मास का अपवाद कर सदा भूमिशयन किया. स्वावलंबन का पाठ आचरण में लाने की दिशा में अखंड प्रयत्नशील रहे. अपना सारा बोज हमेशा अपने ही कंधों पर लादे पद यात्रा की. मार्ग में सदा मौन व्रत का पालन किया. रास्ता चलते समय अगर गलती से भी किसी हरी वनस्पति को स्पर्श हो जाए तो जैन शास्त्र के अनुसार उपवास किया करते. साल में दो बार नियमित रुप में मस्तक के केशों का लुंचन करते थे. चातुर्मास का अपवाद मान अन्यत्र कहीं भी एक माह से अधिक काल तक उन्होंने वास्तव्य नहीं किया. खुद उन्होंने विधिपूर्वक स्याही का निर्माण किया था. सदा उसीका उपयोग करते. संस्कृत, पाली, राजस्थानी, हिंदी, गुजराती, मराठी के साथ अंग्रेजी, जर्मनी इन विदेशी भाषाओं में उन्हें गति प्राप्त थी. विद्याध्ययन की अपार जिज्ञासा भावना के कारण उन्होंने साधुचर्या का त्याग किया था. मुनिवर का स्वभाव परिवर्तन प्रेमी था. उन्होंने अपने मन को सदा पूर्वग्रहमुक्त रखा. कोई स्थान, व्यक्ति, विचार, सिध्दांत, पथ, संप्रदाय, समुदाय या विशिष्ट कार्यशैली उनका पथ नहीं रोक सकी. अपने इस गतिशील स्वभाव धारा के कारण उन्होंने अपने अनेक प्रिय स्थानों का त्याग किया. अनेक विशिष्ट धर्म-पंथ-संप्रदाय के जाल को तोडा . अध्ययन क्रम में बाधक अनेक ज्ञानसंस्थाओं से संबंध विच्छेद कर लिया. कल का विचार नहीं किया. भविष्य के बारे में नहीं सोचा. हर बाधा-अडचनों को लाँघ कर मार्गस्थ होने वाली सरिता के समान वे प्रवाही और प्रवासी रहे. परिवर्तन को जीवनधर्म माना. प्रागतिकता को जीवन का लक्षण माना. सदा उन्मुक्ततापूर्वक रहे. परिवर्तनशील जीवन शैली का स्वागत किया. स्थानकवासी साधु की पोशाक त्यज कर उन्होंने मूर्तिपूजक संप्रदाय का नया वेश परिधान किया. इसके मूल में मुख्यतः विद्याध्ययन की प्रेरणा थी. इस संप्रदाय की पध्दति के अनुसार पूर्वाश्रम का नाम बदल अपने जिनविजय इस नए नाम का अंगिकार किया. इस भेस में बारह सालों तक रहे. विभिन्न स्थानों के दर्शन किए. धार्मिक, सामाजिक, शैक्षिक, साहित्यिक विविध प्रवृत्तियों में रस लिया. मूर्तिपूजक साधु की भूमिका में होते समय उन्होंने अनेक नूतन विचार-प्रमेयों को प्रस्तुत किया. स्थानकवासी साधु जीवन में वैचारिक क्षितिज विस्तारित नहीं थे. नए साधु जीवन में वे वैचारिक क्षितिजों का विस्तार कर सके. इस काल में मनोमंथन जागा. वैचारिक आलोडन-विलोडन हुआ. जीवन तथा सत्य के विविध रुपों से साक्षात्कार हुआ.Page Navigation
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