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५) पंडित सुखलाल जी संघवी
पंडित सुखलाल जी का जीवन पारदर्शी था. उन्होंने ' मारूं जीवन वृत्त ' अर्थात् ' मेरी जीवन कथा ' शीर्षक ' से अपनी आत्मकथा गुजराती भाषा में लिखी है. यह अधूरा आत्मचरित्र है. इसमें सन् १९२१ तक का ही घटनाक्रम समाविष्ट हुआ है. उनके विद्वान शिष्योत्तम दलसुखभाई मालवणिया ने इसका संपादन किया है. पंडित जी ने अपने मित्रों, शिष्यों और यात्रा तथा जीवन की घटनावली का समग्र चित्रण अपने दूसरे ग्रंथ ' दर्शन और चिंतन' में किया है. यह ग्रंथ १९५७ तक के हर घटना प्रसंगों को अपने में समेटे हुए है.
पंडित जी का जन्म वैश्यकल में हआ. उनके पूर्वज जोधपुर से गुजरात पधारे थे. संघ स्थापन करने के कारण उन्होंने ' संघ पति ' की उपाधि पाई. आम तौर पर उन्हें संघवी कहा जाता है. जैन धर्म की स्थानकवासी परंपरा में ८ दिसंबर १८८० को उनका जन्म हुआ. परदादा मावजी,दादा तळशी, पिताजी संघजी. उम्र के चौथे साल में वे मातृसुख से वंचित हो गए. कुल मिलाकर चार भाई बहन. पंडित जी दो क्रमांक के पुत्र थे. विद्याध्ययन के लिए उन्होंने काशी की शरण ग्रहण की. तैरने और घुडसवारी करने में विशेष रुचि थी, यही उनकी वर्जिश थी. विद्यार्थी दशा में उन्होंने साधु जीवन के अनेक चढाव-उतारों का दर्शन किया. जैन साधु-जीवन के साथ अन्यान्य साधु-संतों के जीवन को भी देखा-परखा. उस जीवन की व्यर्थता को जाना-समझा. उस समय तप साधना का अर्थ कायिक तप था. देह दंडन, कर्मकांड, तपाचरण और पारंपारिक शास्त्र चर्चा श्रवण बस, इससे अधिक अर्थ तपसाधना का न था. पंडित जी को यह मान्य न था. वे अंतरंग साधना के आग्रही थे. साधु का आचार सर्व समावेशकता और निर्भयता होना चाहिए यह उनकी अपनी धारणा थी. अपनी धारणा पर वे अटल थे.
उदर निवाह के लिए पंडित जी ने जिनिंग प्रेस में काम करना शुरु किया. उनके साथ और कर्मचारी भी थे. इस काल में देवी का प्रकोप हुआ. तत्कालीन चिकित्सा पध्दति पर प्रकाश डालते हुए जादू टोने की व्यर्थता की चर्चा अपने आत्मचरित्र में पंडित जी ने की है. उपाश्रय में उनकी धार्मिक शिक्षा का आरंभ हुआ. संस्कृत भाषा के अनेक स्मृति वचन एवं कवन उन्हें कंठस्थ थे. उनका मन अब उनके अर्थों की संगति ढंढने में लगा रहा. अमूपचंद मूलचंद के ' प्रश्नोत्तर रत्न चिंतामणि' का स्वाध्याय किया. वयोवृध्द प्रज्ञाचक्षु लाधा महाराज की प्रेरणा से उनके सत्शिष्य उत्तमचंद के माध्यम से संस्कृत भाषा के अध्ययन का आरंभ हुआ. व्याकरण के पाठ रटे गए. उत्तमचंद जी से लगातार सात वर्षों की पढाई के पश्चात् नई-पुरानी गुजराती, संस्कृत, प्राकृत भाषा के जैन साहित्य एवं दर्शन का अध्ययन संपन्न किया. उनके नियोजित विवाह का प्रस्ताव विफल हुआ. पंडित जी विद्याध्ययन में अधिकाधिक रस लेने लगे. उनका अधिकांश समय उपाश्रय में ही व्यतीत होने लगा. वही उपासना स्थल और वही विश्रांती स्थल बना. इस काल में उन्होंने साधू समाज का बारीकी से अध्ययन किया. विविध अनुभव छटाओं का वे अध्ययन कर पाए. साधु-साध्वियो के लोभ-मोह क्रोध और हठीपन अनेक अनुभव तो उन्होंने पाए ही लेकिन उनके अक्षम्य अपराधों का भी उन्होंने इस काल में अनुभव पाया. इस काल में पंडित जी विद्या में निष्णात माने जाने लगे. धीरे धीरे स्वतंत्र प्रज्ञा के कारण स्वयं उन्हें ही इस विद्या की व्यर्थता का परिचय हुआ और वे इससे दूर हट गए. दुनिया को इस विद्या की निरर्थकता का पता करा दिया. जैन परंपरा और उसमें भी स्थानकवासी परंपरा के गहरे संस्कार उनके मन-मस्तिष्क पर पड़े थे. इसी काल में पंडित जी को योग विद्या का ज्ञान हुआ. बालकृष्ण नामक एक जैन साधु ने उनकी मनोभूमि में इस विषय का बीज रोप दिया. ' उचित समय पर अगर मुझे श्रीमद्रराजचंद्र जी का सान्निध्य मिल पाया होता तो मैं योगविद्या में प्रगति कर सकता.' इस प्रकार के उद्गार पंडित जी के हैं लेकिन सांप्रदायिक कलह विचार के कारण स्थानकवासी साधु परंपरा ने उन्हें गृहस्थ मान कर उनका अवमान किया यह तथ्य पंडित जी ने उजागर किया है. यह बात उन्होंने अपनी आत्मकथा में कही है. काशी में जा विद्याध्ययनरत होने से पूर्व काशी के लुटारु पुजारियों का उन्होंने कराया हुआ परिचय