Book Title: Mahatma Gandhiji ke Jain Sant Sadhu Author(s): Publisher: ZZZ Unknown View full book textPage 4
________________ शिक्षा:--- मनुष्य अनंत शाक्तियों का तेजस्वी पुंज है, लेकिन उसकी शक्ति बँधी हुई हैं. उस आवरण को हटा कर विद्यमान शक्ति को प्रकाशित करना ध्येय है. बहुत ही अल्प संख्या में माता-पिता शिक्षा के वास्तविक महत्व एवं मूल्यवत्ता को जानते-समझते हैं. माता-पिता शिक्षा को आजीविका में सहायता करने वाले अथवा धनोपार्जन का साधन मानते हैं, वही शिक्षा अपने बालकों को प्रदान करते हैं. इस वजह से वे शैक्षिक व्यवस्था में लोभ के शिकार हो जाते हैं. लोग नन्हें बालको के लिए कम वेतन वाले सामान्य स्तर के अध्यापकों की नियुक्ति करते हैं और उनसे प्राप्त शिक्षा के द्वारा बालकों के ऊर्जस्वल भविष्य की कामना करते हैं. यह बहुत बडी भूल है. नन्हें मुन्नों में शुभ संस्कारों का सिंचन करने के लिए अनुभव संपन्न अध्यापकों की आवश्यकता होती. है. तपः--- तप एक प्रकार की अग्नि है जिसमें समस्त अपवित्रता, कलिमल तथा समग्र कलुषितता भस्मीभूत हो जाती है. तपस्यारूपी अग्नि में तप्त हो कर आत्म तत्व कंचन की तरह नेजस्वी हो जाता है. ताप को धर्म का आधार माना गया है. तपस्वी की वाणी प्रिय तथा पवित्र होती है. प्रिय, पथ्यकर एवं सत्य वाणी का प्रयोग करने वालों का तप सही अर्थों में तप माना जाता हैं. तपस्वी को असत्य या अप्रिय वाणी बोलने का अधिकार नहीं है. क्लेश युक्त, पीडाकारक तथा भयोत्पादक वाणी का प्रयोग वह न करें. तपस्वी की वाणी में अमृतोपम मधुरता होती है. भवग्रस्त प्राणी उसकी वाणी ग्रहण कर निर्भय बन जाता है. तपस्वी का अपनी जिह्वा पर सदा नियंत्रण होता है. उसकी वाणी शुध्द एवं निर्भय होती है. अस्पृश्यता:---- मनुष्य मात्र को बंधुभाव से देख बंधु मानना धर्म-भावना का हार्द्र है. प्रत्येक मनुष्य हमारा बंधु-बांधव है. बंधु अर्थात् सहायक सहयोगी! इस प्रकार से शूद्र हमारे और हम उनके सहायक है. शूद्र समाज की नींव है. महल की आधारशिला तो उसकी नींव ही होती है. नींव की मजबूती पर ही महल का अस्तित्व टिका हुआ है. शूद्र अस्थिर-विचलित हो गया तो समाज का बुनियादी ढाँचा ही चरमरा कर टूट-बिखर जाएगा. संस्कृति में धूल में मिल जाएगी. यह नित्य स्मरण रखा जाऐं कि ये भी हिंदु समाज की लाडली संतान हैं. उनका धिक्कार नहीं किया जाना चाहिए! उनका अपमान नहीं होना चाहिए. उनके प्रति कृतघ्नता व्यक्त नहीं की जानी चाहिए. उनके साथ स्नेहभरा आचरण-व्यवहार किया जाना चाहिए. संकल्प:--- संकल्प में दुःख को दूर करने की सामर्थ्य है क्या ? जी हाँ, अवश्य है. संकल्प में अनंत शक्ति निवास करती है. संकल्पमात्र से दुःख दूर हो सकते हैं. नवीन दुःखों का प्रादुर्भाव टाला जा सकता है. अपनी संकल्प शक्ति के विकास का ही दूसरा नाम आध्यात्मिक विकास है. संकल्प का प्रभाव जड-सृष्टि पर भी अवश्यमेव पड़ता ही है. संकल्प अगर बल से संयुक्त हो गया तो कार्यसिद्धि में सरलता जागती है. विशिष्ट प्रकार की तत्परता का अंतर्भाव होता है. निर्मल और सच्चे अंतःकरणपूर्वक किए हुए संकल्प को स्वयंमेव प्रकृति अनायास ही सहायता करती है. मिथ्या अहंभाव का त्याग कर शुध्द हृदयपूर्वक ईश्वरत्व की शरण में जाने का संकल्प शुभ है. धर्म :--- जिस प्रकार धर्म और सिध्दांत के लिए राज्य शासन को प्रजा द्वारा सहयोग करना आवश्यक है उसी प्रकार लोकिक नियम-व्यवहारों में यदि राज्य शासन की ओर से अन्याय हो तो राष्ट्र भक्ति युक्त असहयोग करना प्रजा का मुख्य धर्म है. वह प्रजा नपुंसक है जो अहिंसा की आड ग्रहण कर अन्याय के विरुध्द सख्त कदम नहीं उठाती तथा अन्याय को चुपचाप सहन करती है. अनुचित कानून को भय के कारण शिरोधार्य करना धर्म और संस्कृति का अपमान है. धर्मवीर अपकारक कानून को ही नहीं ठुकराता अपितु किसी भी विभाग द्वारा यदि ऐसा कानून बनाया जाता हो तो उसे भी प्रबलता से उखाड़ फेंकने की हिंमत रखता है. ' विरुध्द रज्जाक्कमे ' के अनुसार राष्ट्र व्यवस्था का विरोध न करना धर्म का आदेश है किंतु यदि शासक अनीति, अनाचार और स्वार्थवश राज्य व्यवस्था को तहस-नहस करता हो, गुलामी की बेडियाँ पहनाताPage Navigation
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