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प्रथम ' ग्रंथ को चुना था. पडित सुखलाल जी संघवी ने अपने आत्मचरित्र में पंडित जी के वक्तव्य पर विस्तारपूर्वक लिखा है.
मुनि जिनविजय जी के साथ बेचरदास जी गाँधी जी के अहमदाबाद आश्रम गए थे. इसके पूर्व ही पंडित जी ने गाँधी जी का अमृतमय स्पर्श पाया था. एक प्रकांड पंडित इस प्रकार से निर्भय, उन्मुक्त और सत्य के समर्थक हैं यह जान कर गाँधी जी ने उन्हें मुक्त रुप से आशीर्वाद दिया. अपने सत्य-निर्णय पर दृढ रहने की अनेक अर्थों में प्रेरणा दी. इसके बाद वे दीर्घकाल तक गाँधी जी के सान्निध्य में रहे. अधिक भावपूर्ण परिचय स्थापित हुआ. १९२१-१९२२ साल में वे गाँधी जी के गुजरात पुरातत्व मंदिर से संलग्न हुए. वहाँ पंडित प्रवर सुखलाल जी संघवी के सहयोग से 'सन्मति तर्क' के संपादन का महादुष्कर कार्य सिध्द किया. प्राचीन प्रमाणभूत ग्रंथों के संपादन कार्य में इस संपादन की विशिष्ट भूमिका मानी जाती है. इस संपादन से गाँधी जी अतीव प्रसन्न हुए थे. इस सूक्ष्म कार्य की सिध्दि करने के प्रयत्न में पंडित जी को अपने बाएँ नेत्र की ज्योति को हमेशा-हमेशा के लिए खो देना पडा. नेत्र ज्योति का प्रभाव क्षीण हुआ. इसके बाद दांडी यात्रा का ऐतिहासिक अभियान आरंभ हुआ. इस रणदुंदुभी का नाद सुन कर भी घर में बैठे रहना तो संभव ही नहीं था न ? पंडित बेचरदास जी भी मोहन-मुरली की धुन सुन कर प्रभावित हुए थे. ' नवजीवन ' हस्तलिखित के संपादक बने. नौ महिने तक वीसापुर कारावास में रहे.
कारावास से मुक्ति पाने के बाद पंडित जी के अडचन भरे प्रवास की शुरुआत हुई. ब्रिटिश हुकूमत में दाखिल न होने का आदेश निकला. यह आदेश ठेठ १९३३-१९३६ तक कायम रहा. जब कांग्रेस ने प्रांतों में सत्ताग्रहण कर लिया था तब चरितार्थ के लिए उन्हें अपार परिश्रम करने पडे. यह दुःखभरा समय था. जलती राहों पर चलना था. उनकी पत्नी अजवाळी बेन (हिंदी में अनुवाद उज्ज्वला बेन किया जा सकता है ) ने सजल श्यामल मेघ बन कर उन्हें स्नेह सिंचित रखा. उनके बेटे प्रबोध और शिरीष तथा कन्या ललिता और लावण्यवती को भला कौन भूल सकता है ?
१९३८ के लगभग अहमदाबाद में एल.डी. कॉलेज की स्थापना की गई. गुजरात के स्वनामधन्य विद्वान डॉ.आनंदशंकर जी ध्रुव की विशेष सिफारिश के कारण कॉलेज में अर्धमागधी के प्राध्यापक के रुप में उनकी नियुक्ति की गई. १९४० में उन्होंने मुंबई विश्वविद्यालय की ठक्कर वसनजी माधवजी व्याख्यानमाला में व्याख्यान दिए थे. उनके व्याख्यानों का विषय था ' गुजराती भाषा की उत्क्रांति ' इन व्याख्यानों के कारण उनके पांडित्य की पगडी में मोरपुच्छ सज उठे. लगातार छह दशकों तक पंडित जी ने जैन साहित्य की अपार सेवा की. इस कार्य से अनेक ग्रंथरत्न प्रकट हुए. प्राचीन गुजराती, अपभ्रंश और प्राकृत-अर्धमागधी इन भाषाओं पर पंडित जी का असाधारण अधिकार था. इस क्षेत्र में न केवल देश भर में लेकिन विदेशों में भी अनेक विद्वान थे. उनके अध्ययन के माध्यम से बेचरदास जी ने जैन साहित्य के सत्य दर्शन की स्थापना की. समाज को ज्ञान पथ पर अग्रेसर किया. यह एक अद्भुत बात थी. पांडित्य और सत्यनिष्ठा के क्रांतिकारी मणि-कांचन सुयोग के कारण ही वे गाँधी जी का आशीर्वाद प्राप्त कर सके.
पंडित जी की सारस्वत प्रज्ञा का परिचय उनके द्वारा लिखित, संपादित, अनूदित निम्नलिखित ग्रंथों के माध्यम से होता है. पंडित सुखलाल संघवी के सहयोग से संपादित जिन ग्रंथों का प्रकाशन गुजरात विद्यापीठगुजरात पुरातत्व मंदिर ने किया, उस ग्रंथ - संपदा में सन्मति तर्क (पाँच खंड), सन्मति तर्क (मूल अनुवाद और विवेचन के साथ) और ब्रह्मचर्य विषयक जैन धर्म का दृष्टिकोण आदि ग्रंथों का प्रमुखता से विचार किया जा सकता है. श्री हरगोविंददास जी की सहायता से श्री यशोविजय जैन ग्रंथमाला के अंतर्गत संपादित संस्कृत-प्राकृत ग्रंथों की संख्या बहुत है. इनमें प्रमुखतः रत्नाकरावतारिका, शांतिनाथ महाकाव्य, नेमिनाथ महाकाव्य, विजयप्रशस्ति, पांडव चरित्र, निर्भय भीम व्यायोग, लघु खंडदर्शन समुच्चय, अनेकांत जयपताका (प्रभम खंड), स्याद्दाद मंजरी, अभिधान चिंतामणि कोश, पार्श्वनाथ चरित्र, मल्लिनाथ चरित्र, जगद्गुरु काव्य, शब्द रत्नाकर कोश, आवश्यक नियुक्ति (प्राकृत) इन ग्रंथों का समावेश किया जा सकता है. पंडित जी द्वारा स्वतंत्र रुप से लिखित