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की ही थी, उसका उपाय था ही कहाँ ? प्रभावना के समान उपक्रम द्वारा जो कुछ मिलता उसके साथ ही गुजारा करना पडता था. कई बार उपवास करना पडता. अंत में जामनगर के एक सज्जन श्री सौभाग्यचंद्र कपूरचंद्र जी ने मासिक दस रुपयों की व्यवस्था कर दी. इस आर्थिक सहायता के कारण मार्ग कुछ तो सुगम बना. पालिताणा में साल भर रुक कर वापस वल्लभीपुर आ गए. विद्याध्ययन के लिए उनके मन में काशी जाने की इच्छा बराबर उठती रही. माँ अनुमति नहीं दे रही थीं. आखिर मेहसाणा पाठशाला में जा बैठे और एक माह के भीतर भांडारकर की मार्गोपदेशिका का पहला ग्रंथ प्रकट हुआ.
इस अध्ययन के कारण बेचरदास जी की अध्ययनाकांक्षा अधिक उजली बनी. विद्या प्राप्ति के लिए उनकी छटपटाहट रुकी नहीं और एक दिन माता जी की अनुमति पाए बिना वे हर्षचंद्र के साथ काशी की दिशा में चल पडे. वह १९०६ साल था. आचार्य महाराज सजल जलद बन उमड-घुमड कर बरसने को तैयार थे और बेचरदास जी का मन प्यासी उन्मुख धरती की तरह उत्सुक-आतुर था. अभी छह माह का ही समय बीता था कि देवी-माँ के प्रकोप से वे व्यथित हुए. यह खबर पहुँचते ही माँ का हृदय द्रवित हुआ. बिना किसी को साथ लिए माँ काशी में आ पहुँची थी. मातृ स्नेह को क्या कभी किसी ने बुध्दि के गज से नापा है भला? माँ काशी में बालक के साथ दो वर्षों तक टिकी रहीं. कुछ समय तक वल्लभीपुर में रुक कर बेचरदास जी ने पुनश्च काशी की राह अपनाई. विद्याध्ययन का श्रीगणेश किया. पंडित हरगोविंद दास विक्रम जी सेठ के सहयोग से यशोविजय जैन ग्रंथमाला के संपादन कार्य में लग गए. इस ग्रंथमाला के द्वारा प्रकाशित ग्रंथों का दर्जा विद्वन्मान्य होने के कारण कलकत्ता संस्कृत महाविद्यालय की ' तीर्थ ' परीक्षा के लिए पाठ्यक्रम के रुप में इन ग्रंथों का अंतर्भाव किया गया. मुंबई एज्युकेशन बोर्डद्वारा ली गई धार्मिक परीक्षा में भी बेचरदास जी उच्च श्रेणी में उत्तीर्ण हए. पचहत्तर रुपयों का नकद पुरस्कार पाया.
___एक प्रत्युत्पन्न मति छात्र के रुप में बेचरदास जी का परिचय सबको हुआ. इस काल में उन्होंने संस्कृत भाषा में उत्तम काव्य रचना की है. पंडित जी की इस विलक्षण बुध्दिमत्ता का सम्मान करते हुए महाराज ने उन्हें प्रतिमाह दस रुपए छात्रवृत्ति प्रदान करने की इच्छा दर्शाई तो ' यह पाठशाला मेरी तमाम आवश्यकताओं की पूर्ति करती है. इसलिए मुझे अलग से किसी छात्रवृत्ति की आवश्यकता नहीं ' ऐसा कह कर विनम्रतापूर्वक उन्होंने छात्रवृत्ति को नकार दिया. पंडित जी श्रमण संस्कृति के अध्ययन में पारंगत बने यह महाराज की इच्छा थी. प्राकृत भाषा का ज्ञान संपादित किया. यह उन्हें अधिक सुगम लगा. अचानक उपलब्ध होने वाली किसी सिध्दि के समान उन्होंने प्राकृत भाषा को आत्मसात कर लिया.
बौध्द धर्म के लिए पालि भाषा-ज्ञान की आवश्यकता थी. इस ज्ञान-प्राप्ति के लिए महाराज ने श्री हरगोविंददास के साथ बेचरदास को सीलोन भेजा. आठ माह के काल में विद्या प्राप्ति का अपना इप्सित कार्य संपन्न कर दोनों ने काशी की राह अपनाई. प्राचीन जैन ग्रंथों के संपादन कार्य में तल्लीन हुए. उस समय तक सामाजिक, सांप्रदायिक, धार्मिक शिक्षा संस्थाओं में राष्ट्रीयता की भावना का प्रवेश नहीं हुआ था फिर भी अपने काशी के वास्तव्य काल में ही बेचरदास जी को वंगभंग आंदोलन का स्पर्श हो गया था. उसके प्रभाव स्वरुप उन्होंने देशी वस्त्र और देशी चीनी का इस्तेमाल करने का निर्धार किया था. १९१५-१९१६ साल में गाँधी जी ने स्वदेशी आंदोलन का बिगुल बजाया था. पंडित जी उस समय से ही व्रतों के प्रति आग्रही रहे. उनके अंतःकरण में देशप्रेम की मशाल प्रदीप्त हुई. उनका व्युत्पन्न मस्तक देशभक्ति की भावना से प्रफुल्लित हुआ.
आरंभिक काल में बेचरदास जी के मन में जैन साहित्य एवं दर्शन के संबंध में एकांतिक आग्रह बसा था. उन्होंने अन्य धर्मीय ग्रंथों को स्पर्श तक नहीं किया था लेकिन प्राकृत और अर्धमागधी भाषाओं के अध्ययन-चिंतन ने उनके अध्ययन विचार को विस्तृत किया. प्राचीन ग्रंथों के आलोडन-विलोडन के साथ उन्होंने अन्यान्य तत्व ग्रंथों का भी अध्ययन किया. उनके चिंतन को पृथगात्म आशय प्राप्त हुआ. उनकी अभिव्यक्ति में सर्व समावेशकता का इंद्रधनुष सजा. अंधश्रध्दा का अंधकार हटा. मन व्यापक-विस्तीर्ण हुआ. उन्होंने आगम ग्रंथों का स्वाध्याय किया. आगमों का चिंतन किया. प्राकृत भाषा के समृध्द चिंतन ने उनके मन को प्रगल्भ बना दिया था.