Book Title: Madhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Author(s): Pushpalata Jain
Publisher: Sanmati Vidyapith Nagpur

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Page 7
________________ प्राककपन भाव के वैज्ञानिक युग में भौतिकवादी दौड़-धूप करने के बावजूद व्यक्ति शान्त और सुखी नहीं है क्योंकि उसने पात्मस्वभाव में स्थित न रहकर वैभाविक क्षेत्र में विचरण करना शुरू कर दिया है। उसने अहं को शिर पर रखकर स्वयं को सबसे बड़ा विवेकी मोर खोजी समझ लिया है । इसी भूल और भ्रान्ति ने उसे माकुलमाकुल, व्यग्र तथा प्रशान्त बना दिया है। इसी से वह अपने मूल स्वभाव को भूलकर स्वयं में छिपे परमात्मा को बाहर खोज रहा है। तब वह मिले कैसे ? परमात्मपद की प्राप्ति तो संयम, तप, इन्द्रियनिग्रह, यम, नियम, विवेक आदि के माध्यम से ही हो सकती है। ऐसे साधन भी हर युग में होते रहे जो भीतर से जुड़कर अपने को दुनते रहे, गुनते रहे। भीतर की यह बुनावट किंवा खुलावट मास्म-साक्षात्कार की प्रक्रिया का परिणाम है । इसको पानन्द इन्द्रियातीत है। स्वाधीन पोर पव्यागाध है । भक्त मोर साधक कषियों ने इस अनुभूत मानन्द को नानाविध रूपों में अभिव्यक्त करने का प्रयत्न किया है । साहित्य में यह प्रवृति 'रहस्यवाद' नाम से अभिहित की गयी है। सामान्यतः रहस्यवाद की सृष्टि के लिए जीव धोर ब्रह्मा का भिन्न-भिन्न होना मावश्यक माना गया है। जीव ब्रह्म से मिलने के लिए न केवल माकुल-व्याकुल रहता है, प्रणय निवेदन करता है, वरन् नानाविध बापामों को जय करने में भी अपने पुरुषार्थ-पराक्रम का उपयोग करता है। रहस्यवादी कषियों में जीव और ब्रह्म के पारस्परिक मिलन और उसकी मानन्दानुभूति का विभिन्न प्रतीकों, रूपकों, उलटवासियों मादि के रूप में प्रभावकारी वर्णन किया है पर जैन साधना में जीव और ब्रह्म के मिलन की नहीं, वरन् जीव के ही ब्रह्म हो जाने की स्थिति स्वीकार की गयी है। दूसरे शब्दों में जीव अपने विकारों पर विजय प्राप्त कर, समस्त कर्म पुदगलों की रज हटाकर अपनी प्रात्मा-पेतमा को इतना विशुद्ध पोर निर्मल बना लेता है

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