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1. जिज्ञासा या प्रोत्सुक्य, 2. संसारचक में भ्रमण करनेवाले प्रात्मा का स्वरूप, 3. संसार का स्वरूप, 4. संसार से मुक्त होने के उपाय और 5. मुक्त-अवस्था की परिकल्पना ।
पादिकाल से ही रहस्यवाद प्रगम्य, मगोबर मूह मार दुबोध्य माना जाता रहा है । वेद, उपनिषद्, जैन और बौद्ध साहित्य में इसी रहस्यात्मक प्रतियों का विवेचन उपलब्ध होता है यह बात पलग है कि ग्राम का रहस्यबाद गाय उस समय तक प्रचलित न रहा हो। 'रहस्य' सर्वसाधारण विषय है । स्वकीयामापति उसमें संगठित है । अनुभूतियों की विविधता मत वैभिन्य को जन्म देती है। प्रत्येक मनुमति वाद-विवाद का विषय बना है । शायद इसीलिए एक ही सत्य को पृथक पृषारूप में उसी प्रकार अभिव्यंजित किया गया जिस प्रकार छह भावों के झरा हाथी के ओ. पांगों की विवेचना कवियों ने इस तथ्य को सरल और सरस भाषा में प्रस्तुत किया. है। उन्होंने परमात्मा के प्रति प्रेम और उसकी अनुभूति को "गे कासा-गुड़" बताया है
'अकथ कहानी प्रेम की कन कही न जाय ।
गू गे केरि सरकरा, बैठा मुसकाई।" जैन रहस्यवाद परिभाषा और विकास
रहस्यवाद शब्द मग्रेजी "Mysticism" का अनुवाद है, जिसे प्रथमत : सन् 1920 में श्री मुकुटधर पांडेय ने छायावाद विषयक लेख में प्रयुक्त किया था। प्राचीन काल में इस सन्दर्भ में प्रात्मवाद अथवा अध्यात्मवाद शब्द का प्रयोग होता रहा है । यहां साधक प्रात्मा परमात्मा. स्वर्ग, नरक, राग-दक यादि के विषय में चिन्तन करता था । धीरे-धीरे प्राचार और विचार का समन्वय हुमा पार दार्शनिक चिन्तन भागे बढ़ने लगा । कालान्तर में दिव्य शक्ति की प्राप्ति के लिए परमात्मा के द्वारा निर्दिष्ट मार्ग का अनुकरण और अनुसरण होने लगा । उस 'परम' व्यक्तित्व के प्रति भाव उमड़ने लगे और उसका साक्षात्कार करने के लिए विभिन्न बागों का प्रावरण किया जाने लगा । जैनदर्शन की रहस्यभाषना किंवा रहस्यबाद भी इसी पृष्ठभूमि में दृष्टव्य है।
रहस्यवाद की परिभाषा समय, परिस्थिति और चिन्तन के अनुसार परिवर्तित होती रही है । प्रायः प्रत्येक दार्शनिक ने स्वयं से सम्बन्धित दर्शन पनुसार पृक्त रूप से चिंतन और पाराधन किया है और उसी साधना के बल पर अपने परम लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयत्न किया है। इस दृष्टि से रहस्यवाद की परिभाषाएं भी उनके प्राने ढंग से अभिव्यजित हुई हैं। पाश्चात्य , विद्वानों ने भी रहस्यवाद की