Book Title: Madhyakalin Hindi Jain Sahitya me Rahasya Bhavna
Author(s): Pushpalata Jain
Publisher: Sanmati Vidyapith Nagpur

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Page 14
________________ वर्तनी स्वरूप उस रूप में नहीं माना, जो रूप वैदिक संस्कृति में प्राप्त होता है। यह हमारी सृष्टि का कर्ता हर्ता और बर्ता नहीं है। इसी frer के कारण चीन परम्परा में जैन दर्शन को नास्तिक कह दिया गया था । वहां नास्तिका या वेद-निक | परन्तु यह वर्गीकरण नितान्त बाधार हीन था । इसमें को अं श्रीर बौद्धों के प्रतिरिक्त वैदिक शाखा के ही मीमांसा और नास्तिक की परिभाषा की सीमा में था जायेंगे। प्रसता का विद्वान 'नास्तिक' की इस परिभाषा को स्वीकार नहीं करते जिसके मत में पुण्य और पाप का कोई महत्व न हो। तक दर्शन है । उसमें स्वर्ग, नरक, मोक्ष प्रादि की व्यवस्था स्वयं के कर्मों पर प्राषारित है । उसमें ईश्वर अथवा परमात्मा साधक के लिए दीपक का काम अवश्य करता है, परन्तु वह किसी पर कृपा नहीं करता, इसलिए कि वह विष । नास्तिक वही है, जनदर्शन इस दृष्टि से शाहि वीतरागी हैं। जैन दर्शन की उक्त विशेषता के माधार पर रहस्यवाद की प्राधुनिक परि भाषा को हमें परिवर्तित करना पड़ेगा। जंन चिंतन सुभोपयोग को शुद्धोपयोग की प्राप्ति मे सहायक कारण मानता श्रवश्य है पर शुद्धोपयोग की प्राप्ति हो जाने पर अथवा उसकी प्राप्ति के पथ में पारमार्थिक दृष्टि से उसका कोई उपयोग नहीं ।"इस पृष्ठभूमि पर हम रहस्यवाद को परिभाषा इस प्रकार कर सकते हैं । " अध्यात्म की चरम सीमा की प्रभुभूति रहस्यवाद है। यह वह स्थिति है, जहां प्रारमा विशुद्ध परमात्मा बन जाता है मोर वीतरागी होकर चिदानन्द रस का पान करता है ।" रहस्यवाद की यह परिभाषा जैन साधना की दृष्टि से प्रस्तुत की गयी है । जैन साधना का विकास यथासमय होता रहा है। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है यह fare तत्कालीन प्रचलित जनेतर साधनाथों से प्रभावित भी रहा है। इस प्राचार पर हम जैन रहस्यवाद के विकास को निम्न भागों में विभाजित कर सकते हैं- (1) प्रादिकाल प्रारम्भ से लेकर ई. प्रथम शती तक (2) मध्यकाल - प्रथम द्वितीय शती से 7-8 वीं शती तक । (3) उत्तरकाल -- 8 वीं 9 वीं शती से प्राधुनिक काल तक । 1. आदिकाल - वेद और उपनिषद् में ब्रह्म का साक्षाकार करना मुख्य लक्ष्य माना जाता था । जैन रहस्यबाद, जैसा हम ऊपर कह चुके है, बाबा ईश्वर को ईश्वर के रूप में स्वीकार नहीं करता। यहां जैन दर्शन अपने तीर्थंकर को परमात्मा मानता है और उसके द्वारा निर्दिष्ट मार्ग पर चलकर साधक स्वयं को उसी के समकक्ष बनाने का प्रयत्न करता है ! वृषभदेव, महावीर आदि तीर्थकर ऐसे ही रहस्यदर्शी महापुरुषों में प्रमुख हैं ।

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