Book Title: Madanrekha Akhyayika
Author(s): Jinbhadrasuri, Bechardas Doshi
Publisher: L D Indology Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 262
________________ जेठ सहोदर माहरु, किण कारण साहुणी ए खर । वागरु मनथी संका वारिइ ए ॥ पभणइ पूरव विरतंत तुं, पणि नवि छोडइ मन खति । एगंत लहि पुरि ते गई बारियइ ए ॥९७॥ राजकुलइ ते पइसती, सखीए उलखी माहासती । आवती राजानइ सगली कही ए ॥ चंद्रजसा निय मातनइ, वांदी बइठउ हरखित मनइ । कहउ अनइ ते सहोदर, मुझ किहां रहइ ए ॥९८॥ जेणि तुं वीटयु आईय, ते ताहरु लघू भाईय । जाईय भाईनइ मिलवु कर ए । हरषित रोमांचित हुउ, पुर हुँता नींसरि सांहमु । उमहउ धरतउ बंधू मिलणि खरू ए ॥९९॥ जेठा बांधव आवतु, देखी लघू भाई धावतु । भावतु सफल दिवस ते आजर्नु ए ॥ जाई चरणे लागि ए, मनि प्रेम परमरस जागि ए । रागई ए पुरि पाण्यु मिलि साजनु ए ॥१०॥ गज देई बंधव भणी, थयु आपणपइ मोटउ मुणीं । शिवतणी आस्याई विहरइ सूखई ए ॥ राज बिन्हे नमी पालतु, न्याय मारग चलावतु । सुहावतु जातु काल न ते लखइ ए ॥१०१॥ ढाल । अन्य दिवस राजातणइ, कृत कर्मनइ योगि । देह दाह अतिउपनु, विस थयु सवि भोग ॥१०२॥ करम थकी नवि छूटीयइ, जईयइ जई पायालि । तिहाइ ते परगट हुवइ, लाई तेह संभालि-करम०॥ ए आंकणी ॥१.३॥ औषध वैद घj करइ, तनु दाध न नाई । चंदन लेप घसी करइ, रांणी तिहां आई ॥करम०॥१०४॥ कणयवलय रणझण करइ, हुइ पीडा पूर । एक वलय राखी करी, बीजां कीधां दूरि करम०॥१०५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304