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मंगलाचरण
वृषभादि जिनान् वन्दे, भव्य पंकज प्रफुल्लकान् । गौतमादिगरणधीशान्, मोक्ष लक्ष्मी निकेतनान् ॥१॥ वन्दित्वा कुंदकुंदादीन् महावीर कीर्ति तथा । लघुविद्यां प्रवक्षामि पूर्वाचार्या नुरूपतः ||२||
मोक्ष लक्ष्मी के घर है ऐसे प्रथम तीर्थकर भगवान ऋषभदेव से लगाकर अन्तिम तीर्थकर महावीर स्वामी पर्यत चतुर्विंशति तीर्थकर प्रभु को नमस्कार करता हूँ ।
भव्य रूपी कमलो को प्रफुल्लित करने वाले, गौतमादि गण नायको को नमस्कार करता हू । आचार्य परम्परा मे आने वाले कुन्दकुन्दादिक श्राचाय देव है, उनको नमस्कार करता हूँ। और मेरे गुरुदेव श्री महावोर कीर्ति जी महाराज है, उनको नमस्कार करके लघु-विद्यानुवाद को कहूंगा, जो पूर्वाचार्यो के द्वारा कहा गया है ।
मन्त्र साधन करनेवाले के लक्षरण
निजित मदनाटोप प्रशमित कोपो विमुक्त विकथालापः । देव्यर्चनानुरक्तो जिनपद भक्तौ भवेन्मंत्री ॥
जिसने कामदेव को जीता है, और जिसके क्रोधादि कषाये शान्त है, जो विकथानो से दूर रहने वाला है, देवीयो की पूजा करने मे जिसका चित्त अनुरक्त है और जिनेन्द्र प्रभु के चरण कमलो की भक्ति करने वाला है, वह मन्त्री हो सकता है, मन्त्र साधन करने वाला हो सकता है ।
मंत्राराधन शूरः पाप विदुरो गुणेन गम्भीरः । मौनी महाभिमानी मन्त्री स्यादीदृशः पुरुषः ||
जो मन्त्राराधन करने मे शूरवीर है, पाप क्रियाओ से दर रहने वाला है, गुरणो मे गम्भीर है, मौनी है, महान् स्वाभिमानी है, ऐसा पुरुष हो मन्त्रवादी हो सकता है ।
गुरुजन हितोपदेशो गततन्द्रो निद्रयापरित्यक्ताः । परिमित भोजनशीलः स स्यादाराधको मंत्राः ॥