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किश्चित् प्रास्ताविक कुवलयमाला भी सम्मीलित थी। डॉ० गुणे पीछेसे क्षयरोगग्रस्त हो गये। उनके साथ जो इसके सहसंपादन का विचार हुआ था वह अब संभव नहीं रहा । पर मेरी इच्छा इस ग्रन्थको प्रकट करनेकी प्रबल बनी हुई थी, उसके परिणामस्वरूप मैंने अहमदाबादमें एक उत्तम प्रतिलिपि करने वाले कुशल लेखकसे पूरे ग्रन्धकी प्रेस कॉपी करवा ली।
इसी बीचमें ख० पूज्यपाद प्रवर्तकजी श्री कान्तिविजयजीव श्री चतुरविजयजी महाराजके प्रयत्नसे जेसलमेरकी ताडपत्र वाली प्राचीन प्रतिकी फोटो कॉपी उतर कर आ गई । इसके आधार पर अब ग्रन्थका संपादनकार्य कुछ सुगम मान कर मैंने दोनों प्रतियोंके पाठमेद लेने शुरू किये। गुजरात पुरातत्त्व मन्दिरकी ओरसे अनेक ग्रन्थोंका संपादन-प्रकाशन कार्य चालू किया गया था, इसलिये इसका कार्य कुछ मन्द गतिसे ही चल रहा था । इतनेमें मेरा मनोरथ जर्मनी जानेका हुआ और जिन जर्मन विद्वानोंके संशोधनात्मक कार्योंके प्रति मेरी उक्त रूपसे विशिष्ट श्रद्धा उत्पन्न हो गई थी, उनके कार्यकेन्द्रोंका और उनकी कार्यपद्धतिका, प्रत्यक्ष अनुभव कर आनेकी मेरी इच्छा बलवती हो गई । इंग्रेजी भाषाके प्रति मेरी कुछ विशेष श्रद्धा नहीं थी और मुझे इसके ज्ञानकी प्राप्तिकी कोई वैसी सुविधा मी नहीं मिली थी। पर जब मुझे ज्ञात हुआ कि जर्मन भाषामें, हमारी भारतीय विद्या और संस्कृति पर प्रकाश डालने वाला जितना मौलिक साहित्य प्रकाशित हुआ है उसका शतांश भी इंग्रेजी भाषामें नहीं है; तब मेरी आकांक्षा जर्मन भाषाके सीखनेकी बहुत ही बलवती हो ऊठी । मेरे जैसी परिस्थिति और प्रकृति वाले व्यक्तिके लिये, इस देशमें बैठे बैठे जर्मन भाषाका विशेष परिचय प्राप्त करना कठिन प्रतीत हुआ । क्यों कि जर्मन सीखनेके लिये पहले इंग्रेजी भाषाका अच्छा ज्ञान होना चाहिये, उसके माध्यमसे ही जर्मन भाषा जल्दी सीखी जा सकती है । मेरे लिये वैसा होना संभव नहीं लगा, अतः मैंने सोचा कि जर्मनीमें जा कर कुछ समय रहनेसे अधिक सरलताके साथ, जर्मन भाषा सीधे तौरसे सीखी जा सकेगी; और साथमें वहांके विद्वानों, लोगों, संस्थाओं, कारखानों, विद्यालयों. पुस्तकालयों एवं प्रदेशों, नगरों, गांवों आदिका साक्षात् परिचय भी प्राप्त हो सकेगा।
मैंने अपना यह मनोरथ महात्माजीके सम्मुख प्रकट किया, तो उनने बडे सद्भावपूर्वक मेरे मनोरयको प्रोत्साहन दिया और मुझे २ वर्षके लिये गुजरात विद्यापीठसे छुट्टी ले कर जा आनेकी अनुमति प्रदान कर दी। इतना ही नहीं परंतु अपने युरोपीय मित्रोंके नाम एक जनरल नोट भी अपने निजी हस्ताक्षरोंसे लिख कर दे दिया । उधर जर्मनीसे मी मुझे प्रो० याकोबी, प्रो० शुबींग आदि परिचित विद्वानोंके प्रोत्साहजनक पत्र प्राप्त हो गये थे-जिससे मेरा उत्साह द्विगुण हो गया । सन् १९२८ के मई मासकी २६ तारीखको मैं बंबईसे P. and 0. की स्टीमर द्वारा विदा हुआ।
जर्मनीमें जाने पर प्रो० याकोबी, प्रो० शुबींग, प्रो० ग्लाजेनाप, डॉ० आल्सडोर्प, प्रो० ल्युडर्स और उनकी विदुषी पत्नी आदि अनेक भारतीय विद्याके पारंगत विद्वानोंका घनिष्ठ संपर्क हुआ और उन उन विद्वानोंका स्नेहमय, सौजन्यपूर्ण, सद्भाव और सहयोग प्राप्त हुआ। जर्मन राष्ट्र मुझे अपने देशके जितना ही प्रिय लगा। मैं वहांके लोगोंका कल्पनातीत पुरुषार्थ, परिश्रम और विद्या एवं विज्ञानविषयक प्रभुत्व देख कर प्रमुदित ही नहीं, प्रमुग्ध हो गया। हांबुर्गमें डॉ० याकोबीसे भेंट हुई। उनके साथ अनेक ग्रन्थोंके संपादनसंशोधन आदिके बारेमें बात-चीत हुई। उसमें इस कुवलयमालाका भी जिक्र आया। उनने इस ग्रन्यको प्रसिद्ध कर देनेकी उत्कट अभिलाषा प्रकट की। मैंने जो पूना वाली प्रति परसे प्रतिलिपि करवा ली थी उसका परिचय दिया और साथमें जेसलमेरकी ताडपत्रीय प्रतिकी फोटू कापी भी प्राप्त हो गई है, इसका भी जिक्र किया । मैंने इन दोनों प्रतियोंके विशिष्ट प्रकारके पाठभेदोंका परिचय दे कर अपना अभिप्राय प्रकट किया कि
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