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कुवलयमाला
किया था। क्यों कि सिरीझके मूल संरक्षक ख० बाबू बहादुर सिंहजी सिंघी, ग्रन्थमालाके सुन्दर आकार, प्रकार, मुद्रण, कागज, कवर, गेट-अप आदिके बारेमें बहुत ही दिलचस्पी रखते थे और प्रत्येक बातमें बडी सूक्ष्मता और गहराईके साथ विचार-विनिमय करते रहते थे। ग्रन्थमालाके लिये जो सर्वप्रथम आकार-' प्रकार मैंने पसन्द किया, उसमें उनकी पसन्दगी भी उतनी ही मुख्य थी। प्रेसने जो नमूनेके पृष्ठ मेजे उसमें से मैंने निर्णयसागर प्रेसके स्पेशल टाईप ग्रेट नं. ३ में ग्रन्थका छपवाना तय किया । क्यों कि इस टाईपमें ग्रन्थकी प्रत्येक गाथा, पृष्ठकी एक पंक्तिमें, अच्छी तरह समा सकती है और उस पर पाठ-भेद और पादटिप्पणी के लिये सूचक अंकोंका समावेश भी अच्छी तरह हो सकता है। प्रेसने मेरे कहनेसे इसके लिये बिल्कुल नया टाईप तैयार किया और उसमें २ फार्म एक साथ कंपोज करके मेरे पास उसके प्रुफ मेज दिये।
जिन दिनों ये प्रुफ मेरे पास पहुंचे, उन दिनोंमें मेरा खास्थ्य कुछ खराब था और उसी अवस्थामें मैंने प्रुफ देखने और मूल परसे पाठभेदोंका मिलान करके उनको ठीक जगह रखनेका विशेष परिश्रम किया। खास करके जेसलमेर वाली फोटोकॉपीको, प्रतिवाक्यके लिये देखने निमित्त आंखोंको जो बहुत श्रम करना पड़ा उससे शिरोवेदना शुरू हो गई और उसका प्रभाव न केवल मस्तकमें ही व्यापक रहा पर नीचे गर्दनमें मी उतर आया और कोई २-३ महिनों तक उसके लिये परिचर्याकी लंबी शिक्षा सहन करनी पडी। तब मनमें यह संकल्प हुआ कि कुवलयमालाका ठीक संपादन करनेके लिये, जेसलमेर वाली प्राचीन ताडपत्रीय प्रतिको खयं जा कर देखना चाहिये और उसकी शुद्ध प्रतिलिपि खयं करके फिर इसका संपादन करना चाहिये । विना ऐसा किये इस प्रन्यकी आदर्शभूत आवृत्ति तैयार हो नहीं सकती । इस संकल्पानुसार जेसलमेर जानेकी प्रतीक्षामें, इसका उक्त मुद्रणकार्य स्थगित रखा गया और ग्रन्थमालाके अन्यान्य अनेक प्रन्थोंके संपादन-प्रकाशनमें मैं व्यस्त हो गया । सन् १९३२-३३ का यह प्रसंग है।
उसके प्रायः १० वर्ष बाद (सन् १९४२ के अन्तमें ) मेरा जेसलमेर जाना हुआ और वहां पर प्रायः ५ महिनों जितना रहना हुआ। उसी समय, अन्यान्य अनेक अलभ्य-दुर्लभ्य ग्रन्थोंकी प्रतिलिपियां करानेके साथ इस कुवलयमालाकी सुन्दर प्रतिलिपि भी, मूल ताडपत्रीय प्रति परसे करवाई गई। . द्वितीय महायुद्धके कारण बाजारमें कागजकी प्राप्ति बहुत दुर्लभ हो रही थी, इसलिये ग्रन्थमालाके अन्यान्य प्रकाशनोंका काम भी कुछ मन्द गतिसे ही चल रहा था। नये प्रकाशनोंका कार्य कुछ समय बन्द करके पुराने ग्रन्थ जो प्रेसमें बहुत अर्सेसे छप रहे थे उन्हींको पूरा करनेका मुख्य लक्ष्य रहा था । पर मेरे मनमें कुवलयमालाके प्रकाशनकी अभिलाषा बराबर बनी रही।
कुवलयमाला एक बडा ग्रन्थ है एवं पूना और जसेलमरेकी प्रतियोंमें परस्पर असंख्य पाठमेद हैं, इसलिये इसका संपादन कार्य बहुत ही समय और श्रमकी अपेक्षा रखता है। शारीरिक खास्थ्य और मायुष्यकी परिमितताका खयाल मी बीच-बीचमें मनमें उठता रहता था। उधर ग्रन्थमालाके संरक्षक और संस्थापक बाबू श्री बहादुर सिंहजीका खास्थ्य भी कई दिनोंसे गिरता जा रहा था और वे क्षीणशक्ति होते जा रहे थे। उनके खास्थ्यकी स्थिति देख कर मेरा मन और मी अनुत्साहित और कार्य-विरक्त बनता जा रहा था।
इसी अर्सेमें, सुहृद् विद्वद्वर डॉ० उपाध्येजी बंबईमें मुझसे मिलने आये और ४-५ दिन मेरे साथ ठहरे । उन दिनोंमें, डॉ० उपाध्येने मेरे संपादित हरिभद्ररिके धूर्ताख्यान नामक ग्रन्थका इंग्रेजीमें विशिष्ट ऊहापोहात्मक विवेचन लिख कर जो पूर्ण किया था, उसे मुझे दिखाया और मैंने उसके लिये अपना संपादकीय संक्षिप्त प्रास्ताविक वक्तव्य लिख कर इनको इंग्रेजी भाषनुवाद करनेको दिया । इन्हीं दिनोंमें इनके साप हुवलयमालाके प्रकाशनके विषयमें भी प्रासंगिक चर्चा हुई । कुवलयमालाको सुन्दर रूपमें प्रकाशित
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