Book Title: Kuch Paribhashika Shabda Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 6
________________ जैन धर्म और दर्शन (क) मति, श्रुत श्रादि पाँच प्रकार का ज्ञान 'ज्ञानसंशा है । (ख) अनुभवसंज्ञा के (१) आहार, (२) भय, (३) मैथुन, (४) परिग्रह, (५) क्रोध, (६) मान, (७) माया, (८) लोभ, (६) श्रोध, (१०) लोक, (११) मोह, (१२) धर्म, (१३) सुख, (१४) दुःख, (१५) जुगुप्सा और (१६) शोक, ये सोलह भेद हैं। आचाराङ्ग-नियुक्ति, गा० ३८-३६ में तो अनुभवसंज्ञा के ये सोलह भेद किये गए हैं। लेकिन भगवती-शतक ७, उद्देश्य ८ में तथा प्रज्ञापना-पद ८ में इनमें से पहले दस ही भेद निर्दिष्ट हैं। ये संज्ञाएँ सब जीवों में न्यूनाधिक प्रमाणमें पाई जाती हैं; इसलिए ये संशिअसंज्ञि-व्यवहार की नियामक नहीं हैं। शास्त्र में संशि-असंज्ञि का भेद है, सो अन्य संज्ञाओं की अपेक्षा से । एकेन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय पर्यन्त के जीवों में चैतन्य का विकास क्रमश; अधिकाधिक है। इस विकास के तर-तम-भाव को समझाने के लिए शास्त्र में इसके स्थूल रीति पर चार विभाग किये गए हैं । (१) पहले विभाग में ज्ञान का अत्यन्त अल्प विकास विवक्षित है। यह विकास, इतना अल्प है कि इस विकास से युक्त जीव, मछित की तरह चेष्टारहित होते हैं। इस अध्यक्ततर चैतन्य को 'श्रोधसंज्ञा' कही गई है। एकेन्द्रिय जीव, अोघसंज्ञावाले ही हैं। (२) दूसरे विभाग में विकास की इतनी मात्रा विवक्षित है कि जिससे कुछ भूतकाल का सुदीर्घ भूतकाल का नहीं-स्मरण किया जाता है और जिससे इष्ट विषयों में प्रवृत्ति तथा अनिष्ट विषयों से निवृत्ति होती है। इस प्रवृत्ति-निवृत्तिकारी ज्ञान को 'हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा' कहा है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और सम्मूछिम पञ्चेन्द्रिय जीव, हेतुवादोपदेशिकीसंज्ञावाले हैं। (३) तीसरे विभाग में इतना विकास विवक्षित है जिससे सुदीर्घ भूतकाल में अनुभव किये हुए विषयों का स्मरण और स्मरण द्वारा वर्तमानकाल के कर्तव्यों का निश्चय किया जाता है । यह ज्ञान विशिष्ट मन की सहायता से होता है । इस ज्ञान को दीर्घकालोपदेशकी संज्ञा कहा है । देव, नारक और गर्भज मनुष्य-तिर्यञ्च, दीर्घकालोपदेशिकी संज्ञावाले हैं। (४) चौथे विभाग में विशिष्ट श्रुतज्ञान विवक्षित है। यह ज्ञान इतना शुद्ध होता है कि सम्यक्त्वियों के सिवाय अन्य जीवों में इसका संभव नहीं है। इस विशुद्ध ज्ञान को 'दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा' कहा है। शास्त्र में जहाँ-कहीं संज्ञी-असंज्ञी का उल्लेख है, वहाँ सब जगह असंजी का मतलब अोघसंज्ञावाले और हेतुवादोपदेशिको संशावाले जीवों से है । तथा संज्ञी का मतलब सब जगह दीर्घकालोपदेशिकी संज्ञा वालों से है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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