Book Title: Kuch Paribhashika Shabda
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 22
________________ ३१८ जैन धर्म और दर्शन (१०) 'अनाहारक' अनाहारक जीव दो प्रकार के होते हैं-छद्यस्थ और वीतराग । वीतराग में जो अशरीरी (मुक्त) हैं, वे सभी सदा अनाहारक ही हैं; परन्तु जो शरीरधारी हैं, वे केवलिसमुद्घात के तीसरे चौथे और पाँचवें समय में ही अनाहारक होते हैं। छद्यस्थ जीव, अनाहारक तभी होते हैं, जब वे विग्रहगति में वर्तमान हों। जन्मान्तर ग्रहण करने के लिए जीव को पूर्व स्थान छोड़कर दूसरे स्थान में जाना पड़ता है । दूसरा स्थान पहले स्थान से विश्रेणि-पतित ( वक-रेखा में ) हो, तब उसे वक्र-गति करनी पड़ती है | वक्र गति के संबन्ध में इस जगह तीन बातों पर विचार किया जाता है (१) वक्र-गति में विग्रह (घुमाव ) की संख्या, (२) वक्र-गति का कालपरिमाण और (३) वक्र गति में अनाहारकत्व का काल-मान । (१) कोई उत्पत्ति-स्थान ऐसा होता है कि जिसको जीव एक विग्रह करके ही प्राप्त कर लेता है। किसी स्थान के लिए दो विग्रह करने पड़ते हैं और किसी के लिए तीन भी । नवीन उत्पत्ति स्थान, पूर्व-स्थान से कितना ही विश्रेणि-पतित क्यों न हो, पर वह तीन विग्रह में तो अवश्य ही प्राप्त हो जाता है। इस विषय में दिगम्बर-साहित्य में विचार-भेद नजरनहीं आता; क्योंकि- . 'विग्रहवती च संसारिणः पाक चतुभ्यः । -तत्त्वार्थ-अ० २, सू० २८ । इस सूत्र की सर्वार्थसिद्धिीका में श्री पूज्यपादस्वामी ने अधिक से अधिक तीन विग्रहवाली गति का ही उल्लेख किया है। तथा~~ एक द्वौ त्रीन्वाऽनाहारकः। -तत्त्वार्थ-अ० २, सूत्र ३० । इस सूत्र के छठे राजवार्तिक में भट्टारक श्रीअकलङ्कदेव ने भी अधिक से अधिक त्रि-विग्रह-गति का ही समर्थन किया है। नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती भी गोम्मटसार-जीरकाण्ड की ६६६वीं गाथा में उक्त मत का ही निर्देश करते हैं। श्वेताम्बरीय ग्रन्थों में इस विषय पर मतान्तर उल्लिखित पाया जाता है'विग्रहवती च संसारिणः प्राकचतुर्व्यः। –तत्त्वार्थ-अ० २, सूत्र २६ । 'एकं द्वौ वाऽनाहारकः । - तत्त्वार्थ-अ० २, सू० ३० । श्वेताम्बर-प्रसिद्ध तत्त्वार्थ-अ० २ के भाष्य में भगवान् उमास्वाति ने तथा ठसकी टीका में श्रीसिद्धसेनगणि ने त्रि-विग्रहगति का उल्लेख किया है । साथ ही उक्त भाष्य की टीका में चतुर्विग्रह-गति का मतान्तर भी दरसाया है । इस मतान्तर का उल्लेख वृहत्संग्रहणी की ३२५वीं गाथा में और श्रीभगवती-शतक ७, उद्देश्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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