Book Title: Kuch Paribhashika Shabda
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 36
________________ ३३२ जैन धर्म और दर्शन मुहूर्त को 'दिन-रात ' कहते हैं । दो पर्यायों में से जो पहले हुआ हो, वह 'पुराण' और जो पीछे से हुआ हो, वह 'नवीन' कहलाता है। दो जीवधारियों में से जो 'पीछे से जन्मा हो, वह 'कनिष्ठ और जो पहिले जन्मा हो, वह 'ज्येष्ठ' कहलाता है । इस प्रकार विचार करने से यही जान पड़ता है कि समय, आवलिका आदि सब व्यवहार और नवीनता आदि सब अवस्थाएँ, विशेष - विशेष प्रकार के पर्यायों केही अर्थात् निर्विभाग पर्याय और उनके छोटे-बड़े बुद्धि-कल्पित समूहों के ही संकेत हैं। पर्याय, यह जीव-जीव की क्रिया है, जो किसी तध्वान्तर की प्रेरणा के सिवाय ही हुआ करती है । अर्थात् जीव अजीव दोनों अपने-अपने पर्यायरूप में आप ही परिणत हुआ करते हैं। इसलिए वस्तुतः जीव-जीव के पर्याय- पुञ्ज को ही काल कहना चाहिए । काल कोई स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है । दूसरे पक्ष का तात्पर्य - जिस प्रकार जीव पुद्गल में गति स्थिति करने का स्वभाव होने पर भी उस कार्य के लिए निमित्तकारणरूप से 'धर्म-अस्तिकाय' और 'धर्मअस्तिकाय' तत्त्व माने जाते हैं। इसी प्रकार जीव जीव में पर्याय- परिमन का स्वभाव होने पर भी उसके लिए निमित्तकारणरूप से काल-द्रव्य मानना चाहिए । यदि निमित्तकारणरूप से काल न माना जाए तो धर्म-अस्तिकाय और धर्मअस्तिकाय मानने में कोई युक्ति नहीं । दूसरे पक्ष में मत भेद काल को स्वतन्त्र द्रव्य माननेवालों में भी उसके स्वरूप के संबन्ध में दो मत हैं । (१) कालद्रव्य, मनुष्य-क्षेत्र मात्र में -- ज्योतिष - चक्र के गति क्षेत्र में वर्तमान है । वह मनुष्य-क्षेत्र प्रमाण होकर भी संपूर्ण लोक के परिवर्तनों का निमित्त बनता है । काल, अपना कार्य ज्योतिष चक्र की गति की मदद से करता है । इसलिए मनुष्य-क्ष ेत्र से बाहर कालद्रव्य न मानकर उसे मनुष्य-क्षेत्र प्रमाण ही मानना युक्त है । यह मत धर्मसंग्रहणी आदि श्वेताम्बर -ग्रंथों में है । ― है । वह गुरूप है । गति -हीन अणु, (२) कालद्रव्य, मनुष्य क्षेत्रमात्र वर्ती नहीं है; किन्तु लोक-व्यापी लोक व्यापी होकर भी धर्म-अस्तिकाय की तरह स्कन्ध नहीं है; किन्तु इसके अणुओं की संख्या लोकाकाश के प्रदेशों के बराबर है । वे होने से जहाँ के तहाँ अर्थात् लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर स्थित इनका कोई स्कन्ध नहीं बनता । इस कारण इनमें तिर्यक्प्रचय ( स्कन्ध ) इसी सबब से काल दव्य को अस्तिकाय में नहीं न होने पर भी ऊर्ध्व-प्रचय है । इससे प्रत्येक काल रहते हैं । होने की शक्ति नहीं है । गिना है ! तिर्यक - प्रचय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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