Book Title: Kuch Paribhashika Shabda
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 30
________________ १२६ जैन धर्म और दर्शन कहना कहाँ तक संगत है ? शाब्दिक अध्ययन के निषेध के लिए तुच्छत्व अभिमान आदि जो मानसिक दोष दिखाए जाते हैं, वे क्या पुरुषजाति में नहीं होते ? यदि विशिष्ट पुरुषों में उक्त दोषों का प्रभाव होने के कारण पुरुष- सामान्य के लिए शाब्दिक अध्ययन का निषेध नहीं किया है तो क्या पुरुष-तुल्य विशिष्ट स्त्रियों का संभव नहीं है ? यदि संभव होता तो स्त्री-मोक्ष का वर्णन क्यों किया जाता ? शाब्दिक - अध्ययन के लिए जो शारीरिक दोषों की संभावना की गई है, वह भी क्या सच स्त्रियों को लागू पड़ती है ? यदि कुछ स्त्रियों को लागू पड़ती है तो क्या कुछ पुरुषों में भी शारीरिक अशुद्धि की संभावना नहीं है ? ऐसी दशा में पुरुष जाति को छोड़ स्त्री जाति के लिए शाब्दिक अध्ययन का निषेध किस अभिप्राय से किया है ? इन तर्कों के संबन्ध में संक्षेप में इतना ही कहना है कि मानसिक या शारीरिक दोष दिखाकर शाब्दिक अध्ययन का जो निषेध किया गया है, वह प्रायिक जान पड़ता है, अर्थात् विशिष्ट स्त्रियों के लिए अध्ययन का निषेध नहीं है । इसके समर्थन में यह कहा जा सकता है कि जब विशिष्ट स्त्रियाँ, दृष्टिवाद का अर्थज्ञान वीतरागभाव, केवलज्ञान और मोक्ष तक पाने में समर्थ हो सकती हैं, तो फिर उनमें मानसिक दोषों की संभावना ही क्या है ? तथा वृद्ध, अप्रमत्त और परमपवित्र श्राचारवाली स्त्रियों में शारीरिक अशुद्धि कैसे बतलाई जा सकती है ? जिनको दृष्टिवाद के अध्ययन के लिए योग्य समझा जाता है, वे पुरुष भी, जैसेस्थूलभद्र, दुर्बलिका पुष्यमित्र आदि, तुच्छत्व, स्मृति-दोष आदि कारणों से दृष्टिवाद की रक्षा न कर सके । 'तेण चिंतियं भगिणी इड्डि दरिसेमि त्ति सीहरूवं । --- आवश्यकवृत्ति, पृ० ६६८ । 'ततो आयरिपहिं दुब्बलियपुस्तमित्तो तस्स बायणायरिओ दिष्णो, ततो सो कवि दिवसे वायणं दाऊण आयरियमुट्ठितो भाइ सम वायणं दॅलरूस नासति, जं च सण्णायघरे नाणुष्पेहियं, तो मम अज्करंतस्स नवमं पुव्वं नासिहिति ताहे आयरिया चिंतेति- जइ ताव एयस्स परममहाविस्स एवं भरतस्स नासइ अन्नस्स चिरन चेव ।' - आवश्यकवृत्ति, पृ० ३०८ । ऐसी वस्तुस्थिति होने पर भी स्त्रियों को ही अध्ययन का निषेध क्यों किया गया ! इस प्रश्न का उत्तर दो तरह से दिया जा सकता है - (१) समान सामग्री मिलने पर भी पुरुषों के मुकाबले में स्त्रियों का कम संख्या में योग्य होना और (२) ऐतिहासिक-परिस्थिति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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