Book Title: Kuch Paribhashika Shabda
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 12
________________ ३०८ जैन धर्म और दर्शन 'सिद्धा सिद्धगई, केवलगाणं च दंसणं खयियं । सम्मत्तमणाहारं, उबजोग रकम उत्ती ||७३०|| 'दंसणपुण्वं गाणं, बदमत्थाणं ण दाण्णि उवङगा । जुगवं जम्हा केवलिया हे जुगवं तु ते दो वि ||४४ ॥ जीवकाण्ड | ( ६ ) 'एकेन्द्रिय में श्रुतज्ञान' एकेन्द्रियों में तीन उपयोग माने गए हैं। इसलिए यह शङ्का होती है कि स्पर्शनेन्द्रिय-मतिज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होने से एकेन्द्रियों में मति-उपयोग मानना ठीक है, परन्तु भाषालब्धि (बोलने की शक्ति ) तथा श्रवणलब्धि ( सुनने की शक्ति ) न होने के कारण उनमें श्रुत उपयोग कैसे माना जा सकता है; क्योंकि शास्त्र में भाषा तथा श्रवणलब्धि वालों को ही श्रुतज्ञान माना है 'भावसुर्य भासासायलद्विणा जुज्जए न इयरस्स । भासाभिमुदस्स जयं, सोऊण य जं हविज्जाहि ||१०२ || ' यथा- Jain Education International --- द्रव्यसंग्रह । -- विशेषावश्यक । बोलने व सुनने की शक्ति वाले ही को भावश्रुत हो सकता है, दूसरे को नहीं क्योंकि 'श्रुत ज्ञान' उस ज्ञान को कहते हैं, जो बोलने की इच्छा वाले या वचन सुननेवाले को होता है । इसका समाधान यह है कि स्पर्शनेन्द्रिय के सिवाय अन्य द्रव्य ( बाह्य) इन्द्रियाँ न होने पर भी वृक्षादि जीवों में पाँच भावेन्द्रिय-जन्य ज्ञानों का होना, जैसा शास्त्र - सम्मत है; वैसे ही बोलने और सुनने की शक्ति न होने पर भी एकेन्द्रियों में भावश्रुत ज्ञान का होना शास्त्र सम्मत है । 'जह सुहुमं भाविदियनाणं दविदियाबरोहे वि । तह दव्वसुयाभावे भावसुर्य पत्थिवाईणं ॥ १०४ ॥ १ - विशेषावश्यक | जिस प्रकार द्रव्य-इन्द्रियों के प्रभाव में भावेन्द्रिय-जन्य सूक्ष्म ज्ञान होता है, इसी प्रकार द्रव्यश्रुत के भाषा आदि बाह्य निमित्त के अभाव में भी पृथ्वीकायिक आदि जीवों को अल्प भावश्रुत होता है । यह ठीक है कि औरों को जैसा स्पष्ट ज्ञान होता है, वैसा एकेन्द्रियों को नहीं होता । शास्त्र में एकेन्द्रियों को आहार का अभिलाष माना है, यही उनके स्पष्ट ज्ञान मानने में हेतु है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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