Book Title: Kavyamala Part 7
Author(s): Durgaprasad, Vasudev L Shastri
Publisher: Nirnaysagar Yantralaya Mumbai
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१२८
काव्यमाला।
पइँ नवरि निरभिमाणा जाया जयदप्पभजणुत्ताणा। वम्महनरिन्दजोहा दिद्विच्छोहा मयच्छीणम् ॥ २६ ॥ त्वयि केवलं निरभिमाना जगदर्पभञ्जनोत्तानाः ।
मन्मथनरेन्द्रयोधा दृष्टिक्षोभा मृगाक्षीणाम् ॥] विसमा रागहेसा निन्ता तुरयव्व उप्पहेण मणम् । ठायन्ति धम्मसारिहि दिढे तुह पवयणे नवरम् ॥ २७ ॥ [विषमौ रागद्वेषौ नयन्तौ तुरगाविवोत्पथेन मनः ।
तिष्ठतो धर्मसारथे दृष्टे तव प्रवचने निश्चितम् ॥] पञ्चलकसायचोरे सइसंनिहिआसि चक्कधणुरेहा । हुन्ति तुह चिअ चलणा सरणं भीआण भवरत्ने ॥ २८ ॥ [प्रत्यलकषायचोरे सदासंनिहितासि चक्रधनूरेखौ ।
भवतस्तवैव चरणौ शरणं भीतानां भवारण्ये ॥] तुह समयमरब्भट्ठा भमन्ति सयलासु रुक्खजाईसु । सारणिजलं व जीवा ठाणहाणेसु बज्झन्तो ॥ २९ ॥
तव समयसरोभ्रष्टा भ्रमन्ति सकलासु रू(वृ)क्षजातिषु ।
सारणिजलमिव जीवा स्थानस्थानेषु बध्यमानाः ॥] सलिलिव्व पवयणे तुह गहिथे उष्टुं अहो विमुक्कम्मि । वच्चन्ति नाह कूवारहट्टघडिसंनिहा जीवा ॥ ३० ॥ [सलिल इव प्रवचने तव गृहीते ऊर्ध्वमधो विमुक्ते। व्रजन्ति नाथ कूपारघट्टघटीसंनिभा जीवाः ॥] लीलाइ निन्ति सुक्खं अन्ने जह तिथिआ तहा न तुमम् । तह वि तुह मग्गलग्गा मग्गन्ति बुहा सिवसुहाई ॥ ३१ ॥ [लीलया नयन्ति सुखमन्ये यथा तीथिका तथा न त्वम् ।
तथापि तव मार्गलग्ना मृगयन्ते बुधाः शिवसुखानि ॥] सारिव्व बन्धवहभरणभाइणो जिण ण हुन्ति पइ दिढे । अक्खहिंवि हीरन्ता जीवा संसारफलयम्मि ॥ ३२ ॥
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