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संसार चक्र
संसार क्या है ? क्या संसार किसी वस्तु या पदार्थ विशेष का नाम है ? या क्या किसी चिडिया का नाम है ? क्या हाथ में लाकर हम वस्तु दिखाकर कह सकते है कि इसका नाम संसार हैं ? नहीं, संसार जीव के परिभ्रमण को कहा जाता है। चार गतिरूप यह संसार है जिसमें जीवों का परिभ्रमण सतत होता रहता है। जिस तरह एक तैली के यहां तैली का बैल घूमता रहता है । अाँख पर पट्टी बंधी हुई है और गोल-गोल घूमता रहता है। उसी तरह जीव एक गति से दूसरी, दूसरी से तीसरी, तीसरी से चौथी इन चारों गति में घूमता रहता है । यही जीव का संसार है । अतः संसारी जीव का लक्षण करते हुए पू. हरिभद्रसूरि महाराज ने शास्त्रवार्तासमुच्चय ग्रन्थ में कहा है कि
यः कर्ता कर्मभेदानां भोक्ता कर्म फलस्य च । संसर्ता परिनिर्वाता सह्यात्मा नान्यलक्षणः ॥
जो कर्म का कर्ता है और किए हुए कर्म के फल को भोगने वाला है, संसार में सतत जो घूमता रहता है, वही जीव है । यहीं प्रात्मा का लक्षण है, स-गती धातु से संसार शब्द निष्पन्न हुमा है, अर्थात् सतत गतिशील जो है वह संसार है । संसरण शील संसार है । बहती हुई नदी का प्रवाह भी सतत गतिशील है उसे संसार नहीं कहां, परन्तु जहां सतत जीवों का संसरण होता है वह संसरणशील संसार है । सर्पाकार वक्रगति से जीव ऊंची-नीची गतियों में सतत भटक रहा है । न तो कोई उद्देश्य है और न ही कोई लक्ष्य । लक्ष्यहीन रूप में तैली के बैल की तरह सिर्फ चारों गति में धूमता है।
क्या यह परिभ्रमण जीव स्वयं करता है ? या हमारी लगाम किसी अन्य . के हाथ में हैं ? क्या कोई ऊपरवाला हमको धूमाता है ? या जीव स्वयं अपने ही कारण से घूम रहा है ? क्या बात है ? इसका मूल कारण हमें ढूंढना है । इस विषय में आगे विचार करेंगे ।
कर्म की गति न्यारी
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