Book Title: Kappasuttam Vhas Vises Chunni Sahiyam Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Sanghdasgani Kshamashraman,
Publisher: Shubhabhilasha Trust
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एवं उत्तर में कुणाल तक आर्यक्षेत्र है। अतः साधु-साध्वियों को इसी क्षेत्र में विचरना चाहिए। इससे बाहर जाने पर ज्ञान-दर्शन- चारित्र की हानि होती है। ज्ञान - दर्शन- चरित्र की वृद्धि का निश्चय होने की अवस्था में आर्यक्षेत्र से बाहर जाने में कोई हानि नही हैं। यहाँ तक प्रथम उद्देश का अधिकार है।
द्वितीय उद्देश
द्वितीय उद्देश में पचीस सूत्र हैं। सर्वप्रथम उपाश्रयविषयक बारह सूत्रों में आचार्य ने बताया है कि जिस उपाश्रय में शालि, व्रीहि, मुद्ग, माष, तिल, कुलत्थ, गोधूम, यव, यवयव आदि बिखरे पडें हों वहाँ निर्ग्रथ-निर्ग्रथियों को थोडे समय के लिए भी नहीं रहना चाहिए। जिस उपाश्रय में शालि आदि बिखरे हुए न हों किंतु एक ओर ढेर आदि के रूप में पडे हों वहाँ हेमंत एवं ग्रीष्मऋतु में साधुसाध्वियों को रहना कल्प्य है। जिस उपाश्रय में शालि आदि एक ओर ढेर आदि के रूप पडे हुए न हों किंतु कोष्ठागार आदि में सुरक्षित रूप से रखे हुए हों वहाँ साधु-साध्वियों को वर्षाऋतु में रहना कल्प्य हैं। जहाँ सुराविकट एवं सौवीरविकटौं कुंभ आदि रखे हुए हों वहाँ निर्ग्रथ-निर्ग्रथियों को थोडे समय के लिए भी रहना अकल्प्य है। यदि किसी कारण से खोजने पर भी अन्य उपाश्रय उपलब्ध न हो तो एक या दो रात्रि के लिए वहाँ रहा जा सकता है, इससे अधिक नहीं। अधिक रहने पर छेद अथवा परिहार' का प्रायश्चित्त आता हैं। इसी प्रकार शीतोदकविकट कुंभ, उष्णोदकविकट कुंभ, ज्योति, दीपक आदि से युक्त उपाश्रय में रहना भी निषिद्ध है। जिस उपाश्रय में पिंड, लोचक, क्षीर, दधि, नवनीत, सर्पिषु, तैल, फाणित, पूप, शष्कुलिका, शिखरिणी आदि बिखरे पडे हों वहाँ साधु-साध्वियों को रहना अकल्प्य है। जहाँ पिंड आदि एक ओर रखे हुए हों वहाँ हेमंत व ग्रीष्मऋतु में रहने में कोई हर्ज नहीं एवं जहाँ ये कोष्ठागार आदि में सुव्यवस्थित रूप में रखे हुए हों वहाँ वर्षाऋतु में रहने में भी कोई बाधा नहीं। निर्ग्रथियों को आगमनगृह (पथिक आदि के आगमन के हेतु बने हुए), विकृतगृह (अनावृत गृह), वंशीमूल, वृक्षमूल अथवा अभ्रावकाश (आकाश) में रहना अकल्प्य है। निर्ग्रथ आगमनगृह आदि में रह सकते है।
आगे के सूत्रों में बताया गया है कि एक अथवा अनेक सागारिकों गृहस्थों के वसति=उपाश्रय के मालिकों के यहाँ से साधु-साध्वियों को आहारादि नहीं लेना चाहिए। यदि अनेक सागारिकों में से किसी एक को खास सागरिक के रूप में प्रतिष्ठित किया हुआ हो तो उसे छोड कर
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१. सुराविकटं पिष्टनिष्पन्नम्, सौवीरविकटं तु पिष्टवर्जेगुडादिद्रव्यैर्निष्पन्नम्।(क्षेमकीर्तिकृत वृत्ति, पृ. ९५२) २. 'छेदो वा, पंचरात्रिन्दिवादिः'परिहारो वा' मासलघुकादिस्तपोविशेषो भवतीति सूत्रार्थः । (क्षेमकीर्तिकृत वृत्ति पृ. ९५२) ३. पिण्डो नामयदशनादिकं 'सम्पन्नं' विशिष्टाहारगुणयुक्तं षड्रसोपेतमिति यावत्। 'यत्तु' यत् पुनरशनादि स्वभावादेव 'लुप्तम्' आहारगुणैरनपेतं तद् लोचकं नाम जानीहि । (क्षेमकीर्तिकृत वृत्ति, पृ. ९६९ )
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