Book Title: Kappasuttam Vhas Vises Chunni Sahiyam Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Sanghdasgani Kshamashraman,
Publisher: Shubhabhilasha Trust
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करना, आकुंचनपट्ट (पर्यस्तिकापट्ट) रखना, सावश्रय' आसन पर बैठना- सोना, सविषाण पीठ- फलक पर बैठना-सोना, नालयुक्त अलाबुपात्र रखना, सवृंत पादकेसरिका' रखना, दारुदण्डक (पादप्रोंछनक) रखना आदि भी कल्प्य नहीं है।
मोकविषयक सूत्र में बताया है कि निर्ग्रथ-निर्ग्रथियों को परस्पर मोक (पेशाब अथवा थूक) का आचमन करना=पान करना अकल्प्य है। रोगादिक कारणों से वैसा करने की छूट है।
परिवासितप्रकृत प्रथम सूत्र में निर्ग्रथ-निर्ग्रथियों को परिवासित अर्थात् रात्रि में रखा हुआ आहार खाने का निषेध किया है। शेष सूत्रों में परिवासित आलेपन, परिवासित, परिवासित तैल आदि का उपयोग करने का निषेध किया गया है।
परिहारकल्पविषयक सूत्र में बताया गया है कि परिहारकल्प में स्थित भिक्षु को यदि स्थविर आदि के आदेश से अन्यत्र जाना पड़े तो तुरंत जाना चाहिए एवं काम पुरा करके वापिस लौट आना चाहिए। ऐसा करने में यदि चरित्र में किसी प्रकार का दोष लगे तो उसका यथोचित प्रायश्चित्त करना चाहिए।
पुलाकभक्तप्रकृत सूत्र में सूत्रकार ने इस बात पर जोर दिया है कि साध्वियों को एक स्थान से पुलाकभक्त अर्थात् सरस आहार (भारी भोजन) प्राप्त हो जाये तो उस दिन उसी आहार से संतोष करते हुए दूसरी जगह और आहार लेने नहीं जाना चाहिए। यदि उस आहार से पूरा पेट न तो दूसरी भिक्षा के लिए जाने में कोई हर्ज नहीं है।
षष्ठ उद्देश—
षष्ठ उद्देश में बीस सूत्र हैं। इसमें बताया गया है कि निर्ग्रथ-निर्ग्रथियों को निम्नलिखित छः प्रकार के वचन नहीं बोलने चाहिए— अलीकवचन, हीलितवचन, खिंसितवचन, परुषवचन, गार्हस्थिकवचन और व्यवशमितोदीरणवचन।
कल्प (साध्वाचार) के विशुद्धिमूलक छः प्रस्तार (प्रायश्चित्त की रचनाविशेष) हैं—- प्राणातिपात का आरोप लगानेवाले से संबंधित प्रायश्चित्त, मृषावाद का आरोप लगानेवाले से संबंधित प्रायश्चित्त, अदत्तादान का आरोप लगानेवाले से संबंधित प्रायश्चित्त, अविरतिका (स्त्री) अथवा अब्रह्म (मैथुन) का आरोप लगानेवाले से संबंधित प्रायश्चित्त, अपुरुष - नंपुसक का आरोप लगाने वाले से संबंधित प्रायश्चित्त और दास का आरोप लगाने वाले से संबंधित प्रायश्चित्त। *
१. पीठवाला — सावश्रयं नाम यस्य पृष्ठतोऽवष्टम्भो भवति । चूर्णौ। ३. उ.६, सू. १। ४. उ. ६, सू.२,३।
२. “पादकेसरिया णाम डरहयं चीरं । असईए चीराणां दारुए बज्झति” इति
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