Book Title: Kappasuttam Vhas Vises Chunni Sahiyam Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Sanghdasgani Kshamashraman,
Publisher: Shubhabhilasha Trust
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की गई है। 'मंगल' पद के निक्षेप, मंगलाचरण का प्रयोजन, आदि, मध्य और अंत में मंगल करने की विधि आदि विषयों की चर्चा करने के बाद नंदी - ज्ञानपंचक का विवेचन किया गया है। श्रुतज्ञान के प्रसंग से सम्यक्त्वप्राप्ति के क्रम का विचार करते हुए औपशमिक, सास्वादन, क्षायोपशमिक, वेदक और क्षायिक सम्यक्त्व का स्वरूप बताया गया है। '
अनुयोग का स्वरूप बताते हुए निक्षेप आदि बारह प्रकार के द्वारों से अनुयोग का विचार किया गया है। उनके नाम ये है — १. निक्षेप, २. एकार्थिक, ३. निरुक्त, ४. विधि, ५. प्रवृत्ति, ६. केन, ७. कस्य, ८. अनुयोगद्वार, ९. भेद, १०. लक्षण, ११. तदर्ह, १२. पर्षद्। '
कल्प-व्यवहार के अनुयोग के लिए सुयोग्य मानी जानेवाली छत्रांतिक पर्षदा के गुणों का बहुश्रुतद्वार, चरिप्रव्रजितद्वार और कल्पिकद्वार इन तीन द्वारों से विचार किया गया है। कल्पिकद्वार का आचार्य ने निम्न उपद्वारों से विवेचन किया है— सूत्रकल्पिकद्वार, अर्थकल्पिकद्वार, तदुभयकल्पिकद्वार, उपस्थापनाकल्पिकद्वार, विचारकल्पिकद्वार, लेपकल्पिकद्वार, पिंडकल्पिकद्वार, शय्याकल्पिकद्वार, वस्त्रकल्पिकद्वार, पात्रकल्पिकद्वार, अवग्रहकल्पिकद्वार, विहारकल्पिकद्वार, उत्सारकल्पिकद्वार, अचंचलद्वार, अवस्थितद्वार, मेधावीद्वार, अपरिस्रावीद्वार, यश्चविद्वान् द्वार, पत्तद्वार, अनुज्ञातद्वार, और परिणामकद्वार। इनमें से विचारकल्पिकद्वार का निरूपण करते हुए आचार्य ने विचारभूमि अर्थात् स्थंडिलभूमि का सविस्तार निरूपण किया है। इस निरूपण में निम्न द्वारों का आधार लिया गया है—भेद, शोधि, अपाय, वर्जना, अनुज्ञा, कारण, यतना।' शय्याकल्पिकद्वार का रक्षणकल्पिक और ग्रहणकल्पिक की दृष्टि से विचार किया है। इसी प्रकार अन्य द्वारों का भी विविध दृष्टियों से विवेचन किया गया है। यत्र-तत्र दृष्टांतों का उपयोग भी हुआ है। उत्सारकल्पिकद्वार के योगविराधना दोष को समझाने के लिए घंटाशृगाल का दृष्टांत दिया गया है। परिणामकद्वार में परिणामक, अपरिणामक आदि शिष्यों की परीक्षा के लिए आम्र, वृक्ष, बीज आदि के दृष्टांत दिये गये है.।' छेदसूत्रों (बृहत्कल्पादि) के अर्थश्रवण की विधि की ओर संकेत करते हुए परिणामकद्वार के उपसंहार के साथ पीठिका की समाप्ति की गई है। '
प्रथम उद्देशः प्रलंबसूत्र
पीठिका के बाद भाष्यकार प्रत्येक मूल सूत्र का व्याख्यान प्रारंभ करते है। प्रथम उद्देश में प्रलंबप्रकृत, मासकल्पप्रकृत आदि सूत्रों का समावेश है। प्रथम प्रलंबसूत्र की निम्न द्वारों से व्याख्या की गई है- आदिनकारद्वार, ग्रंथद्वार, आमद्वार, तालद्वार, प्रलंबद्वार, भिन्नद्वार। ताल, तल और प्रलंब का अर्थ इस प्रकार है— तल वृक्षसंबंधी फल को ताल कहते है; तदाधारभूत वृक्ष का नाम
१. गा. ४- १३१ । २.गा. १४९ - ३९९ । ३. गा. ४१७-४६९ । ४.गा. ४००-८०२ । ५.गा. ८०३-५।
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