Book Title: Kappasuttam Vhas Vises Chunni Sahiyam Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Sanghdasgani Kshamashraman,
Publisher: Shubhabhilasha Trust
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अंतरगृहस्थानादिप्रकृत सूत्र में आचार्य ने बताया है कि निर्ग्रथ-निर्ग्रथियों को घर के भीतर अथवा दो घरों के बीच में बैठना, सोना आदि अकल्प्य है। कोई रोगी, वृद्ध, तपस्वी आदि मूर्च्छित जाये अथवा गिर पडे तो बैठने आदि में कोई दोष नहीं है। निर्ग्रथ-निर्ग्रथियों को अंतरगृह में चार-पाँच गाथाओं का आख्यान नहीं करना चाहिए। एक गाथा आदि का आख्यान खडे खडे किया जा सकता है।
शय्या-संस्ताकरसंबंधी सूत्रों में बताया गया है कि निर्ग्रथ - निर्ग्रथियों को प्रातिहारिक (वापिस देने योग्य) उपकरण मालिक को सौंपे बिना अन्यत्र विहार नहीं करना चाहिए। शय्यातर अर्थात् मकान-मालिक के शय्या-संस्तारक को अपने लिए जमाये हुए रूप में न छोड़ते हुए बिखेर र व्यवस्थित करने के बाद ही अन्यत्र विहार करना चाहिए। अपने पास के शय्यातर के शय्या - संस्तारक को यदि कोई चुरा ले जाये तो उसकी खोज करनी चाहिए एवं वापिस मिलने पर शय्यातर को सौंप देना चाहिए। पुनः आवश्यकता होने पर याचना करके उसका उपयोग करना चाहिए।
अवग्रहविषयक सूत्रों में सूत्रकार ने इस बात पर प्रकाश डाला है कि जिस दिन कोई श्रम वसति एवं संस्तारक का त्याग करें उसी दिन दूसरे श्रमण वहाँ आ जावें तो भी एक दिन तक पहले के श्रमणों का अवग्रह (अधिकार) कायम रहता है।
सेनाप्रकृत सूत्र में बताया है कि ग्राम, नगर आदि के बाहर सेना का पडाव पडा हो तो निर्ग्रथनिर्ग्रथियों को उसी दिन भिक्षाचर्या करके अपने स्थान पर लौट आना चाहिए। वैसा न करने पर प्रायश्चित्त का भागी होना पडता है।
अवग्रहप्रमाणप्रकृत सूत्र में ग्रंथकार ने बताया है कि निर्ग्रथ - निर्ग्रथियों को चारों ओर से सवा वर्ग योजन का अवग्रह रख कर ग्राम, नगर आदि मे रहना कल्प्य है।
चतुर्थ उद्देश
चतुर्थ उद्देश में सैंतीस सूत्र हैं। प्रारंभिक सूत्रों में आचार्य ने बताया है कि हस्तकर्म, मैथुन एवं रात्रिभोजन अनुद्धातिक अर्थात् गुरुप्रायश्चित्त के योग्य हैं। दुष्ट, प्रमत्त एवं अन्योन्यकारक के लिए पारांचिक प्रायश्चित्त का विधान है। साधर्मिकस्तैन्य, अन्यधार्मिकस्तैन्य एवं हस्ताताल (हस्ताताडन=मुष्टि आदि द्वारा प्रहार) अनस्वथाप्य प्रायश्चित्त के योग्य है।
पंडक, वातिक, एवं क्लीब प्रव्रज्या के लिए अयोग्य हैं।' इतना ही नहीं, ये मुंडन, शिक्षा,
१. विनय-पिटक के पाराजिक प्रकरण में मैथुनसेवन के लिए पाराजिक प्रायश्चित्त का विधान है। पाराजिक का अर्थ है भिक्षु को भिक्षुपन से हमेशा के लिए हटा देना। २. उ.४, सू. ४ ('पण्डकः' नपुंसकः, 'वातिको' नाम यदा स्वनिमित्ततोऽन्यथा वा मेहनं काषायितं भवति तदा न शक्नोति वेदं धारयितुं यावन्न प्रतिसेवा कृता, 'क्लीबः' असमर्थः) ।
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