Book Title: Kalpsutravrutti Subodhikabhidhana
Author(s): Vinayvijay, 
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund

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Page 553
________________ कल्प. सुबो. 1000000000000000000000000000000000000000000000000000 वासावासं प० अत्थेगइआणं एवं वुत्तपुव्वं भवइ, अट्ठो भंते गिलाणस्स? से अ वएज्जा अट्ठो, से य पुच्छियव्वे, केवइएणं अट्ठो? से वएज्जा-एवइएणं अट्ठो गिलाणस्स, जं से पमाणं वयइ, से य पमाणओ घित्तव्वे, मांस ३ नवनीत ४ वर्जनं यावज्जीवं अस्त्येव, तथापि अत्यन्तापवाददशायां बाह्यपरिभोगाद्यर्थ कदाचिद् ॥ १७ ॥ ( वासावासं पज्जोसवियाणं अत्थेगइआणं एवं वत्तपव्व भवइ ) चतर्मासकं स्थितानां अस्ति एतद् एकेषां वैयावृत्त्यकरादीनां एवमक्तपर्व भवति, गरुं प्रतीति शेषः वैयावृत्त्यकरैर्गुरवे एवं उक्तं भवतीत्यर्थः ( अट्ठो भंते गिलाणरस ) हे भदन्त भगवन् ! अर्थो वर्त्तते ग्लानस्य इति वैयावृत्त्यकरेण प्रश्ने कृते ( से अ वएज्जा) स गुरुर्खदेत् ( अट्ठो) ग्लानस्य अर्थो वर्त्तते! ( से अ पुच्छेअव्वो) ततः स ग्लानः प्रष्टव्यः ( केवइएणं अट्ठो) कियता विकृतिजातेन क्षीरादिना तवार्थः, तेन च ग्लानेन खप्रमाणे उक्ते (से अ वइज्जा) स वैयावृत्त्यकरो गुरोरग्रे समागत्य यात् (एवइएणं अट्ठो गिलाणस्स) एतावतार्थो ग्लानरय, ततो गुरुराह (जं से पमाणं वयइ ) यत् स ग्लानः प्रणाणं वदति ( से य पमाणओ 1000000000000000000000000000000000000000000000000000 ॥५३५॥ Jain Education Inter For Private Personel Use Only jainelibrary.org

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