Book Title: Kalpsutravrutti Subodhikabhidhana
Author(s): Vinayvijay,
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
View full book text
________________
कल्प०
| सुबो.
00000000
1000000000000000000000000000000000
वासावासं पज्जो निग्गंथस्त निग्गंथीए वा गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविट्ठस्त निगिज्झिय (२) वुटिकाए निवइज्जा, कप्पइ से अहे आरामंसि वा जाव रुक्खमूलंसिवा उवागच्छित्तए, नो से कप्पइ पुवगहिएणं भत्तपाणेगं वेलं उबायणा वित्तए-कप्पइ से पुवामेव वियडगं भुच्चा पडिग्गहगं संलिहिय (२) संपमज्जिय (२) ( वासावासं पज्जोसवियस्स ) चतुर्मासकं स्थितस्य (निगंथरस निगंथीए वा गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविट्ठस्स ) साधोः साध्व्याश्च गृहस्थगृहे भिक्षाग्रहणार्थ अनुप्रविष्टस्य ( निगिझिय निगिझिय बुटिकाए निवइज्जा ) स्थित्वा स्थित्वा वृष्टिकायः निपतेत् तदा ( कप्पइ से अहे आरामंसि वा) कल्पते तस्य आरामस्याधो वा ( जाव रुक्खमूलंसि वा उवागच्छित्तर) यावत् वृक्षमूले वा उपागन्तुं ( नो से कप्पइ पुवगहिएणं भत्तपाणेणं वेलं उवायणावित्तए) नो तस्य कल्पते पर्वगृहीतेन भक्तपानेन भोजनवेलां अतिक्र| मयितुं ॥ आरामादिस्थितस्य साधोर्यदि वर्षा नोपरमति तदा किं कार्यमित्याह-( कप्पइ से पुवामेव वियडगं भुच्चा पडिग्गहगं संलिहिय संलिहिय संपमज्जिय (२)) कल्पते तस्य साधोः पूर्वमेव विकटं उद्गमादिशुद्धम
0000000000000000000000000000000000000000000000000000
Jain Education
For Private Personel Use Only
Tww.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618