Book Title: Kalpsutravrutti Subodhikabhidhana
Author(s): Vinayvijay,
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
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सुबो
॥५५६॥
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एगओ भंडगं कह सावसेसे सूरे जेणेव उवस्सए तेणेव उवागछित्तए, नो से कप्पइ तं रयणिं उवायणावित्तए ॥३६॥ वासावा० नगंथरस निग्गंथीए वा गाहावइकलं पिंडवायपडियाए
अणुपविट्ठस्स निगिज्झिय (२) वुट्टिकाए निवइज्जा, कप्पड़ से अहे आरामंसि वा जाव उवागशनादि भुक्त्वा पीत्वा च पात्रं निर्लेपीकृत्य सम्प्रक्षाल्य (एगओ भंडगं कट्ट) एकस्मिन् पार्श्वे पात्राद्युपकरणं कृत्वा वपुषा सह प्रावृत्य वर्षस्यपि मेघे ( सावसेसे सुरिए ) सावशेषे अनस्तमिते सूर्ये ( जेणेव उवस्सए तेणेव उवागच्छित्तए ) यत्रैव उपाश्रयः तत्रैव उपागन्तुं, परं ( नो से कप्पइ तं रयणिं उवायणावित्तए) नो तस्य कल्पते तां रात्रि गृहस्थगृहे एव अतिक्रमयितुं, एकाकिनो हि बहिर्वसतः साधोः स्वपरसमुत्था बहवो दोषाः संम्भवेयः, साधवो वा वसतिस्था अधृतिं कर्यरिति ।। ३६ ।।
( वासावासं पजोसवियरस ) चतुर्मासकं स्थितस्य (निग्गंथरस निग्गंथीए वा गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविठ्ठरस ) साधोः साध्व्याश्च गृहस्थगृहे भिक्षाग्रहणार्थ अनुप्रविष्टस्य (निगिझिय निगिज्झिय वुट्टिकाए निवइज्जा) स्थित्वा स्थित्वा वृष्टिकायः निपतेत तदा (कप्पइ से आरामांस वा जाव उवागच्छित्तए) कल्पते
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