Book Title: Kalpsutravrutti Subodhikabhidhana
Author(s): Vinayvijay,
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
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कल्प
सुबो.
॥५४८॥
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एगे पुण एवमाहंसु-नो कप्पइ जाव उवस्सयाओ परंपरेणं संखडिं संनियट्टचारिस्स इत्तए ॥२७॥ वासावा० नो कप्पइ पाणिपडिग्गहियस्स भिक्खुस्स कणगफुसियमित्तमवि बुटिकायंसि निवयमाणंसि जाव गाहावइकुलं पविसित्तए वा० ॥२८॥ कथयन्ति-नो कल्पते उपायादारभ्य परतः सप्तगृहमध्ये जेमनवारायां संन्निवृत्तचारिणां भिक्षार्थ गन्तुं ( एगे पुण || | एवमाहंस नो कप्पइ जाव उवस्सयाओ परंपरेणं संखडि संनियट्टचारिस्स इत्तए) एके पनः एवं कथयन्ति-नो कल्पते उपाश्रयादारभ्य परम्परतः सप्तगहमध्ये जेमनवारायां सन्निवृत्तचारिणां भिक्षार्थ गन्तं, द्वितीयमते ‘परेणंति' शय्य तरगृहं अन्यानि च सप्त गृहाणि वर्जयेत्, तृतीयमते परम्परेणेति शय्यातरगृहं तत एकं गृहं, ततः परं सप्त गृहाणि वर्जयेदिति भावः ॥ २७ ॥ (वासावासं पज्जोसवियस्स) चतुर्मासकं स्थितस्य (नो कप्पइ पाणिपडिग्गहियरस भिक्खुस्स ) नो कल्पते पाणिपात्रस्य जिनकल्पिकादेर्भिक्षोः ( कणगफुसियमित्तमवि बुटिकायसि निवयमाणंसि ) कणगफुसिआ फुसारमात्रं एतावत्यपि वृष्टिकाये निपतति सति ( गाहावइकुलं भत्ताए पाणाए वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा ) गृहस्थगृहे भक्तार्थ वा पानार्थ वा निष्क्रमितुं वा प्रवेष्टुं वा ॥२८॥
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