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प्रकाशनों की विस्तृत सूचना अभी भी कम्प्यूटर में प्रविष्ट करनी बाकी है एवं ज्यादातर प्रविष्ट कृतिगत सूचनाओं का अंतिम पुष्टिकरण भी बाकी है - इत्यादि अनेक कारणों से कुछ एक प्रकाशित कृतियाँ भी सम्भवतया अप्रकाशित के रूप में यहाँ
आ गई हैं. खासकर लघु कृतियों हेतु यह सम्भावना अधिक है. अतः कृपया इसे एक संकेत मात्र के ही रूप में देखा जाय. • क्वचित् ऐसा भी प्राप्त हुआ है कि एक ही कृति के लिए भिन्न-भिन्न कर्ताओं के नाम मिले हैं. कृति का प्रायः सब कुछ एक
समान होते हुए भी मात्र रचना प्रशस्ति में फर्क मिलता है. अतः कर्ता नाम अंतिमरूप से तय करना दुष्कर हो ऐसी स्थिति में सामान्यतः प्रत्येक कर्ता के अनुसार उस कृति की स्वतंत्र प्रविष्टियाँ दी गई हैं. • अनेक कृतियों के एकाधिक प्रचलितनाम भी मिलते हैं, इनमें से यहाँ व सूचीपत्र में कद बढ़ने के भय से मात्र एक मुख्य
नाम ही दिया गया है. यथा- बारसासूत्र के लिए कल्पसूत्र ही दिया गया है. इसी प्रकार कृतियों के सामान्य व विशेष फर्क के साथ एकाधिक आदिवाक्य भी मिलते हैं. इनमें से यहाँ मात्र एक ही आदिवाक्य दिया गया है. जबकि सूचीपत्र में तो तत् तत् प्रतगत प्रथम व क्वचित् द्वितीय स्तर के आदिवाक्य दिए गए हैं.
जो कि सम्भवतः यहाँ दिए गए आदिवाक्य से न भी मेल खाते हों. ऐसा ज्यादातर टबार्थ व बालावबोधों में पाया गया है. • कृति के आदिवाक्य के पहले कृति का मूल स्रोत चिह्नित करने हेतु मूपू., स्था., ते., दि., जै., वै., बौ. इन संकेतों का प्रयोग क्रमशः जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक, जैन श्वेताम्बर स्थानकवासी, जैन श्वेताम्बर तेरापंथी, जैन दिगंबर, जैन, वैदिक, बौद्ध के लिए किया गया है. जहाँ पर ये संकेत नहीं हैं वे सामान्य कृतियाँ हैं. इन संकेतों को यथोपलब्ध सूचनाओं के आधार पर दिया गया है तथा इनकी अंतिम रूप से पुष्टि होनी बाकी है. • वाचकों की सुविधा एवं उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए कृति के साथ दिए हुए प्रत क्रमांक क्रमशः प्रत की शुद्धि आदि
महत्ता, संपूर्णता, दशा, अपूर्णता व अशुद्धि की वरीयता से दिए गए हैं. शुद्धता सूचक निशानी (+) वाले प्रत क्रमांकों को सर्वाधिक महत्व दिया गया है, उसके बाद संपूर्ण, पूर्ण व प्रतिपूर्ण प्रतों को तथा अंत में (3) (4) (9) निशानी वाले प्रत क्रमांकों को रखा गया है. अतः प्रत क्रमांक अपने स्वाभाविक अनुक्रम से नहीं मिलेंगे. कृति के सामने हस्तप्रत का पहचान स्वरूप प्रत क्रमांक तथा यदि प्रत में एकाधिक कृतियाँ हैं तो प्रस्तुत कृति प्रत में किस क्रमांक की पेटाकृति है, वह पेटांक भी दिया गया है. यथा प्रत क्रमांक १०२०७ के तीसरे पेटांक में महावीरजिन स्तवन है.
इसका क्रमांक इस प्रकार लिखा गया है - १०२०७-३. . प्रत संशोधित होने, टिप्पणक आदि से युक्त होने व कर्ता के स्वहस्ताक्षर से लिखित होने पर प्रत की महत्ता को बताने के
लिए प्रत क्रमांक के बाद (4) का चिह्न लगाया गया है. यथा ९१३१(4) • प्रत दुर्वाच्य, अवाच्य, अशुद्ध पाठ वाली होने पर प्रत क्रमांक के बाद () का चिह्न लगाया गया है. यथा ५६९९०. • प्रत में प्रस्तुत कृति अपूर्ण, त्रुटक या प्रतिअपूर्ण होने पर प्रत क्रमांक के बाद (5) का चिह्न दे दिया गया है. यथा ६३८९७). • कट, फट जाने आदि के कारण नष्ट हुई प्रत व पाठ की निम्नोक्त अवदशाओं की जानकारी कराने के लिए प्रत क्रमांक के
अंत में (4) का चिह्न लगाया गया है. यथा-५६२२। ऐसे संकेत होने पर प्रत के साथ अग्रलिखित दशा सम्बन्धी सम्भावनाएँ हो सकती हैं, जिनका यथेष्ट विवरण सम्बन्धित प्रत विशेष में देखने को मिलेगा. यथा- (१) मूल पाठ का अंश नष्ट हो गया है. (२) टीकादि का अंश नष्ट है. (३) मूल व टीका का अंश नष्ट है. (४) टिप्पणक का अंश नष्ट है. (५) अक्षर फीके पड़ गये हैं. (६) अक्षर मिट गये हैं. (७) अक्षर पन्नों पर आमने-सामने छप गये हैं. (८) अक्षर की स्याही फैल गई है. (९) पत्र नष्ट होने लगे हैं. (१०) पत्र नष्ट हो गये हैं इत्यादि.
हस्तप्रत सूची के अंदर संबंधित प्रत क्रमांक के 'प्रत दशा' नामक शीर्षक में ये विवरण देखे जा सकते हैं. • प्रत में प्रस्तुत कृति यदि प्रतिपूर्ण है तो प्रत क्रमांक टेढ़े Italic अंकों में दिखाए गए हैं. यथा-५८१६.
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