Book Title: Kailas Shrutasagar Granthsuchi Vol 23
Author(s): Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 14
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥श्री महावीराय नमः॥ ॥ श्री बुद्धि-कीर्ति-कैलास-सुबोध-मनोहर-कल्याण-पद्मसागरसूरि सद्गुरुभ्यो नमः॥ कैलास श्रुतसागर ग्रंथसूची हस्तलिखित जैन साहित्य १.१.२३ ९४६५१.(+) सिंदूरप्रकरं नाम सूक्तिशतक, संपूर्ण, वि. १७वी, मध्यम, पृ. १०, प्र.वि. पदच्छेद सूचक लकीरे-संशोधित., जैदे., (२४.५४१०,११४३८-४०). सिंदूरप्रकर, आ. सोमप्रभसूरि, सं., पद्य, वि. १३वी, आदि: सिंदूरप्रकरस्तपः करिशिरः; अंति: सोमप्रभ०मुक्तावलीयम्, द्वार-२२, श्लोक-१००. ९४६५२. (#) विविध विषय संबद्ध गाथा संग्रह, संपूर्ण, वि. १८वी, मध्यम, पृ. ६, प्र.वि. अक्षर पत्रों पर आमने-सामने छप गए हैं, अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैदे., (२६४११,११४३८). गाथा संग्रह *, प्रा., पद्य, आदि: रिउ समय नाय नारी नरोव; अंति: (-), (अपूर्ण, पृ.वि. प्रतिलेखक द्वारा अपूर्ण., अंतिम शृंखला में गाथा-५ तक लिखा है., वि. विषयानुसार अलग-अलग गाथाक्रम है.) ९४६५३. (+) पट्टावली खरतरगच्छीय, संपूर्ण, वि. १७वी, मध्यम, पृ. १५, प्रले. पं. आणंद (गुरु मु. चारुदत्त, खरतरगच्छ); गुपि. मु. पीथाजी; मु. चारुदत्त (गुरु मु. हंसप्रमोद, खरतरगच्छ); मु. हंसप्रमोद (गुरु पं. हर्षचंद्र गणि, खरतरगच्छ), प्र.ले.पु. मध्यम, प्र.वि. संशोधित. कुल ग्रं. ३७६, जैदे., (२५४१०, १५४४४-५२). पट्टावली खरतरगच्छीय, मा.गु., गद्य, आदि: श्रीआर्यरक्षितसूरि ते; अंति: श्रीजिनसागरसूरि थापी, (वि. विस्तृत घटनाक्रम सहित.) ९४६५४ (+#) शत्रुजयतीर्थ रास, अपूर्ण, वि. १८वी, मध्यम, पृ. ६-१(३)=५, प्र.वि. सर्वगाथा-१००८, संशोधित. कुल ग्रं. १५०, टिप्पणक का अंश नष्ट, जैदे., (२४४१०, १३४४०-४४). शजयतीर्थ रास, उपा. समयसुंदर गणि, मा.गु., पद्य, वि. १६८२, आदि: श्रीरिसहेसर पाय नमी आणी; अंति: समयसुंदर० आणंद थाय, ढाल-६, गाथा-११२, (पू.वि. ढाल-४ की गाथा-१४ अपूर्ण से ढाल-५ की गाथा-१३ अपूर्ण तक नहीं है.) ९४६५५. दशवैकालिकसूत्र सह वृत्ति, अपूर्ण, वि. १८वी, मध्यम, पृ. १०, पू.वि. अंत के पत्र नहीं हैं., प्र.वि. हुंडी:दशवै०वृत्ति, जैदे., (२४.५४१०.५, १५४४२-५०). दशवैकालिकसूत्र, आ. शय्यंभवसरि, प्रा., पद्य, वी. रवी, आदि: धम्मो मंगलमुक्किट्ठ; अंति: (-), (पृ.वि. अध्ययन-४ अपूर्ण तक है.) दशवैकालिकसूत्र-शिष्यबोधिनी टीका#, आ. हरिभद्रसूरि, सं., गद्य, आदि: जयति विजितान्यतेजाः; अंति: (-). ९४६५७. पाक्षिकसूत्र व पार्श्वजिन गीत, संपूर्ण, वि. १९वी, मध्यम, पृ. १५, कुल पे. २, जैदे., (२६.५४११, ८४४३-४७). १. पे. नाम. पाक्षिकसूत्र सह टबार्थ, पृ. १अ-१५आ, संपूर्ण. पाक्षिकसूत्र, हिस्सा, प्रा., प+ग., आदि: तित्थंकरे य तित्थे; अंति: सयं जेसिं सुअसायरे सत्ति. पाक्षिकसूत्र-टबार्थ, मा.गु., गद्य, आदि: तीर्थंकरसिद्ध; अंति: हुइ ते मिच्छामि दुकडं. २. पे. नाम. पार्श्वजिन गीत, पृ. १५आ, संपूर्ण. पार्श्वजिन स्तवन-गोडीजी, म. जिनचंद्र, पुहिं., पद्य, वि. १७२२, आदि: अमल कमल जिम धवल विराजे; अंति: श्रीजिनचंद्र० मन आस, गाथा-९. ९४६५८. (+) अजितशांति स्तवन, गणपरिचय श्लोक व गणविवरण, संपूर्ण, वि. १६३८, श्रावण अधिकमास कृष्ण, १४, शनिवार, मध्यम, पृ. १२, कुल पे. ३, प्रले. पूरनमल माथुर कायस्थ, प्र.ले.प. सामान्य, प्र.वि. लिखावट से प्रत का लेखनकाल १९वीं प्रतीत होता है., पदच्छेद सूचक लकीरें-संशोधित-अन्वय दर्शक अंक युक्त पाठ-टिप्पण युक्त विशेष पाठ., जैदे., (२५.५४१०, ५४३२-३६). For Private and Personal Use Only

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