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वाले ग्रंथों को अलग छाँटकर विषय व भाषानुसार विभागीकरण करना- यह सब हो जाने के बाद सूचीकरण का कार्य प्रारंभ होता है. इस हेतु हर प्रत का सांगोपांग अध्ययन कर अपेक्षित सूचनाओं का संकलन व वर्गीकरण होता है. पूज्य आचार्यश्री के शिष्य शांतमूर्ति पूज्य उपाध्यायप्रवर श्री धरणेन्द्रसागरजी के कर्मनिष्ठ शिष्य प्रतिक्रमणसूत्रों का सर्व प्रथम रोमन लिप्यंतरण व हिंदी अंग्रेजी अर्थ सहित संपादित करनेवाले पूज्य तपस्वी मुनिराज श्री निर्वाणसागरजी ने ६०,००० से ज्यादा प्रतों हेतु १,००,००० से ज्यादा प्रपत्र बरसों तक अहर्निश परिश्रम करके भर रखें हैं. इन्हें यथानियम कम्प्यूटर में प्रविष्ट करके इन सूचनाओं का संपादन किया जाता है. इस कार्य के दौरान बीच-बीच में आद्य-अंतभाग हीन ऐसी अपूर्ण प्रतें, अशुद्ध लिखी प्रतें, बड़ी मुश्किली से थोड़ी बहुत ही पढ़ी जा सकें ऐसी अपठनीय लिपिवाली या जीर्ण दशावाली प्रतें, सूचीकर्ता व संपादकों के लिए अल्प परिचित ऐसी मारुगूर्जर कुल की देशी बोली की कृतियोंवाली प्रतें, प्रतों में रही कृति की सूचनाओ में परस्पर विरोधाभास... जैसी अनेकविध जटिलता युक्त हस्तप्रतें हाथ में आती रहती हैं, जिनका निराकरण प्रत के गहराई से अध्ययन के द्वारा एवं अनेकविध संदर्भो को देखने से होता है. कई बार एक ही प्रत में १०० से भी ज्यादा पेटा कृतियाँ लिखी मिलती हैं, जिनकी सारी सूचनाएँ कम्प्यूटर में सूचीकृत करने में दो-दो दिन तक लग जाते हैं. इन सब बाधाओं को पारस्परिक सहयोग से पार करते हुए सूचीकरण का कार्य जारी रहता है.
इस कार्य दौरान उल्लेखनीय व महत्वपूर्ण प्रतें भी प्राप्त होती हैं. कुछ एक उदाहरण निम्नलिखित हैं. १. सोमगणि के शिष्य हर्षोदयमुनि द्वारा रचित व स्वहस्ताक्षर से लिखित समवायांगसूत्र अवचूरि. प्रति. प्रत नं. ५२५२
प्रतिलेखन वर्ष - १६९९. २. गद्यबद्ध विस्तृत प्रति लेखन पुष्पिका हेतु देखें प्रत नं. ३७१५ प्रतिलेखन वर्ष १८०२. ३. पद्यबद्ध विस्तृत प्रतिलेखन पुष्पिका जिसमें कि उपकेशगच्छीय आचार्य श्री जिनसागरसूरि के उपदेश से प्रत लिखवाई
जाने का उल्लेख है. यह प्रत संशोधित है. प्रत नं. ७१५, प्रतिलेखन वर्ष - १५०६.. ४. चौबीस श्लोकमय पद्यबद्ध प्रतिलेखन पुष्पिका. प्रत नं. १५२, प्रतिलेखन वर्ष - १७वी सदी. ५. एक ही प्रत में क्रमशः ग्रंथमाला की भाँति भिन्न-भिन्न कृतियों को पृथक्-पृथक् पत्र क्रम दिया हुआ मिलता है. सुंदर
अक्षरों से तथा शुद्ध पाठों से युक्त प्रतें भी मिलती है. यथा- प्रत नं. ८८३, प्रतिलेखन वर्ष - १४५३ में आचार्य श्री
देवसुन्दरसूरि के उपदेश से लिखी गई पञ्चाशक, पञ्चसूत्र आदि की प्रत. ६. खरतरगच्छीय आचार्यश्री जिनचन्द्रसूरि के शिष्य उपा० समयराज रचित जैनधर्ममञ्जरी प्रत जो कि इनके ही शिष्य
लाडन द्वारा लिखी गई है. प्रत नं. ९७० प्रतिलेखन वर्ष - १६६४ यह प्रत भीमजी रावल के राज्यकाल में लिखी गई. ७. प्रतिलेखन पुष्पिकान्तर्गत ग्यासदीन (गयासुद्दीन - मुगलशासक) के राज्यकाल का उल्लेख है. प्रत नं. १९४२ प्रतिलेखन
संवत-१५२९ इस तरह की अनेकविध महत्वपूर्ण विशिष्ट प्रतें भी मिलती रहती हैं. बीच बीच में प्रायः अप्रकाशित कृतिओं का भी पता लगता है. इनमें से कुछ एक की सूची पृष्ठ ३१-३२ पर दी है.
साथ ही प्रत की विशेषता को बतलाने वाली २२ जितनी लाक्षणिकताओं एवं अनेक उपलाक्षणिकताओं व प्रत की दशा को बतलानेवाली २० जितनी लाक्षणिकताओं एवं अनेक उपलाक्षणिकताओं के संकेतों की यथायोग्य प्रविष्टि कर दी जाती है. इन लाक्षणिकताओं के बहुविध उपयोग है. यथा इनके आधार से भविष्य में कम्प्यूटर प्रोग्राम द्वारा अनेक अपूर्ण प्रतों को परस्पर मिलाकर संपूर्ण किया जा सकेगा. ये लाक्षणिकताएँ संशोधकों के लिए प्रत चयन में भी बड़ी मददगार बनती है.
सूचीकरण के बाद सूचीगत सूचनाओं को व्यापक नजरिए से संपादित किया जाता है. सूचीकरण पश्चात के कार्य जैसे पुनरुद्धार, जिरॉक्स, स्केनिंग, फोटोग्राफी, माइक्रोफिल्म एवं डिजिटल एडिटींग आदि कार्य भी आयोजित किए गये हैं.
ग्रन्थराशि के एक-एक ग्रंथ, एक-एक पन्ने तथा इनके टुकड़ें भी हमारी अमूल्य धरोहर हैं. उसका जतन करना भी उतना ही महत्वपूर्ण है. इसलिए इनका संरक्षण तथा फ्यूमिगेशन आदि प्राचीन अर्वाचीन दोनों पद्धतियों से कुशल कार्यकरों के मार्गदर्शन में हो रहा है. उत्तम सागवान की लकड़ी के बने एवं खास प्रकार से स्टील द्वारा संरक्षित कबाटों में लाल मोटे कपड़े में इन ग्रंथों को आवेष्टित कर के रखने का कार्य भी प्रगति पर है.
जैन साहित्य एवं साहित्यकार कोश परियोजना के अन्तर्गत शक्यतम सभी जैन ग्रंथों व उनमें अन्तर्निहित कृतियों का
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