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ग्रंथों की दुर्दशा की वजह है- भारत के लिए प्रतिकूल एवं कुदरती सिद्धान्तों से विरूद्ध ऐसी थोपी हुई आर्थिक सामाजिक व्यवस्थाएँ अपना लेने की वज़ह से गाँव, कस्बों के टूटने से हुआ शहरीकरण एवं अपने हृदय में रहे सांस्कृतिक गौरव को योजना पूर्वक तोड़नेवाली शिक्षा प्रणाली को अपनाने से हमारे भीतर अपनी संस्कृति व विरासत की ओर खड़ी हुई उपेक्षा. फलस्वरूप ऐसे भी अनेक लोग मिले जिन्हें स्वयं श्रुतोद्धार का कार्य करना या इसमें सहकार देना तो दूर रहा, कार्य में रोड़े डालना मात्र अपना कर्तव्य लगता है. ऐसों के बीच भी हर विघ्नों को लांघ कर अडिग संकल्प के धनी आचार्यश्री निरंतर यह कार्य करते ही रहे हैं.
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पूज्यश्री इतना ही कर के रूके नहीं अपितु भारतीय शिल्प कला-स्थापत्य और खासकर जैन शिल्प स्थापत्य के उत्तम नमूने संगृहीत कर इसी संस्था में एक सुंदर संग्रहालय भी स्थापित करवाया है, जो सम्राट संप्रति संग्रहालय के नाम से विख्यात है.
आचार्यश्री की कड़ी मेहनत तथा अटूट लगन से आज इस ग्रन्थागार में हस्तप्रत, ताड़पत्र व पुस्तकों का करीबन तीन लाख से ऊपर विशाल संग्रह, अनेक स्वर्णलिखित ग्रंथ, बेशकीमती सामग्री, सचित्र प्रतें, सैकड़ों मूर्तियाँ, शिल्प - स्थापत्य इत्यादि बहुमूल्य पुरातन सामग्री व सुंदर शिल्पकला के नमूने जैन व भारतीय संस्कृति की अमूल्य निधि व धरोहर के रूप में विद्यमान है. इस संग्रह के सदुपयोग का लाभ चतुर्विध संघ और देशी-विदेशी विद्वानों को निरंतर मिल रहा है. इतना ही नहीं यहाँ पर विकसित आधुनिक सुविधाओं के कारण संशोधन के क्षेत्र में कार्य कर रहे विद्वानों के लिए यह ज्ञानमंदिर आशीर्वाद रूप सिद्ध हुआ है. सच कहा जाय तो सैकड़ों वर्षों के बाद इतने विशाल जैन श्रुत साहित्य की सुरक्षा करनेवाले जैनाचायों में आचार्यश्री का सम्मानित नाम सदियों तक अग्र पंक्तियों में अंकित रहेगा. परम पूज्य आचार्यदेव श्री पद्मसागरसूरि महाराजश्री ने अनेक छोटे-बड़े मंदिरों का जीर्णोद्धार करवाया है, अनेक स्थानों पर जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठा करवाई हैं परंतु श्रुतोद्धार का जो उन्होंने प्रयास किया है उसे इतिहास कभी भूला नहीं सकेगा.
संपादक मंडल का हृदयोद्गार
पूज्य राष्ट्रसन्त आचार्य श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी की कृपादृष्टि एवं भारतीय साहित्य की लाक्षणिकताओं के अनुरूप सूचीकरण विज्ञान में अनेक उपयोगी विभावनाओं को सर्वप्रथम उपस्थित करने वाले पूज्य मुनिराज श्री अजयसागरजी की सत्प्रेरणा और उनका कुशल निर्देशन न होता तो शायद कैलास श्रुतसागर हस्तप्रत सूची रूप यह प्रथम पुष्प इतने सुंदर रूप में आपके कर-कमलों में अर्पण करने का हमें सौभाग्य प्राप्त न होता.
मात्र निर्देशन ही नहीं अपितु अपने अनोखे अनुभव से हस्तप्रत के सभी कार्यों में मार्गदर्शन देकर हमे यह भगीरथ कार्य करने में प्रोत्साहित किया है एवं सक्षम बनाया है. कार्य की जटीलताओं से उद्भूत समस्याओं की विकट घड़ियों में जब पूज्य मुनिश्री कहते है कि- आठ पंडित आप लोग और नौवें पंडित के रुप में मैं अर्थात् अजयसागर... हर समय आपके साथ ही हूं. तब हमें नैतिक बल व आनन्द की यादगार अनुभूति होती है..
इनके वात्सल्यपूत मार्गदर्शन से ही हम Card Index प्रविष्ट करने से लेकर आज कम्प्यूटर पर सीधे सूचनाओं की प्रविष्टि व संपादन कार्य सुचारुतया करने में समर्थ हो सके हैं. वास्तव में हम सब तो निमित्तमात्र हैं, इस महाकार्य का श्रेय तो मुनिश्री को ही जाता है.
इस कार्य की शृंखला में आगे भी आपका इसी प्रकार अमृतमय सान्निध्य रहे इसी मंगल कामना के साथ....
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संपादक मंडल
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर, कोबातीर्थ
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