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श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा तीर्थ आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर
व इसके प्रणेता आचार्य श्रीमत् पद्मसागरसूरि महाराज द्वारा अनुपम श्रुतोद्धार श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र- कोबा तीर्थ अपनी प्राचीन श्रुतनिधि के संरक्षण व संवर्धन के लिए आज विश्वभर में सुप्रसिद्ध है. आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर में संगृहीत प्राचीन जैन व जैनेतर हस्तप्रतों का विशाल ज्ञानभंडार भारतभर में अपने ढंग का एक अद्वितीय संग्रह है. ग्रंथालय सूचना के क्षेत्र में अपने अनूठे तरीके से कम्प्यूटर आधारित विशेष आधुनिक सूचना पद्धति के द्वारा यह ज्ञाननिधि ज्ञान-पिपासु साधक वर्ग, श्रमण समुदाय, विद्वान समूह व आम जनता के लिए एक सुन्दर उपलब्धि स्रोत बनी है. यहाँ पर न केवल एकाध प्रवृत्ति का स्रोत है, वरन् सम्यग् ज्ञान-दर्शन-चारित्र की सामग्रियों का भी त्रिवेणी संगम हुआ है. जिन्होंने भी इस ज्ञानतीर्थ का लाभ लिया है या स्पर्शना की है वे चाहे सामान्य व्यक्ति हो या विद्वान, गृहस्थ हो या साधु, श्रमण हो या संन्यासी सभी ने अपनी जिज्ञासा परितृप्त कर यहाँ के लिए मुक्त कंठ से प्रशंसा भरे आशीर्वचन प्रगट किए हैं, कर रहे हैं. इस क्षेत्र में जैन समाज व प्रमुख भारतवासियों को बड़े गौरव का अनुभव हो रहा है.
आचार्य श्री पद्मसागरसूरि महाराज की हस्तप्रतों के संग्रह हेतु लगन अपनी प्राचीन श्रुत एवं कला विरासत के संरक्षण हेतु दिए गए योगदान के फलस्वरूप पूज्यपाद राष्ट्रसन्त आचार्य श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज साहब का उपकार युगों-युगों तक भूलाया नहीं जा सकेगा. पूज्यश्री ने सम्यग् ज्ञान के संरक्षण व संवर्धन के लिए ऐसा अनुपम कार्य किया है, जिसका इस युग में कोई उदाहरण नहीं है. आनेवाली पीढ़ी इस कार्य को एक सर्वश्रेष्ठ कार्य के रूप में सुवर्णाक्षरों से इतिहास में अंकित करेगी.
बरसों पहले (सन् १९६५ के आसपास) हिन्दुस्तान पाकिस्तान का युद्ध चल रहा था. उस समय हस्तलिखित ग्रंथों को बेचनेवाले बहुत आया करते थे. आचार्यश्री (उस वक्त मुनि अवस्था में) उन दिनों राजस्थान की पावन धरा पर विचरण कर रहे थे. आपने सोचा कि अपने पूर्वजों की महान सांस्कृतिक धरोहर बाहर चली जाय और विदेशों में बिके यह बात तो अच्छी नहीं है. अपनी विरासत, अपना साहित्य हम क्यों न सँजोकर रखें? इसे भारत से बाहर क्यों जाने दें? बस इसी बात ने पूज्यश्री के मानस पटल को उजागर कर दिया. एक निश्चय किया और जहाँ से मिला, जैसा भी मिला शक्य सारा का सारा पाण्डुलिपि साहित्य इकट्ठा करवा के उसे प्रतिष्ठित संस्थान लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर (एल. डी. इंस्टीट्यूट ऑफ इन्डोलोजी) अहमदाबाद में भेजते रहे. इसी प्रकार शिल्प स्थापत्य की चीजें आप खोज-खोज कर वहीं पर भेजते रहे. मुनि श्री पुण्यविजयजी महाराज उन दिनों लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर से जुड़े हुए थे और श्री कस्तूरभाई शेठ इसके संरक्षक थे. उन दोनों ने आपके इस स्तुत्य प्रयास और योगदान की बड़ी सराहना की. आगे भी अधिक से अधिक संग्रहणीय वस्तुओं का सहयोग करने की अपने पत्रों में अपील की थी. इसी दौरान पूज्य आचार्यश्री ने आगम प्रभाकर मुनि श्री पुण्यविजयजी को महोपाध्याय श्री यशोविजयजी की स्वहस्तलिखित पाण्डुलिपियां भेजीं तो मुनि पुण्यविजयजी महाराज के उद्गार थे- 'यदि तुमने मुझे पूज्य उपाध्याय यशोविजयजी के हस्ताक्षरों के दर्शन मात्र ही करवाए होते तो भी मैं अपने आप को धन्यभाग समझता, जब कि तुमने तो मुझे ये हस्तप्रतें भेंट ही भेज दी हैं.' इस प्रकार हजारों की संख्या में बहुमूल्य हस्तप्रत ग्रन्थसमूह का योगदान करके आचार्यश्री ने एल.डी. इन्स्टिट्यूट को समृद्ध कर गौरवान्वित किया तथा भारतीय संस्कृति की मूल्यवान निधि को नष्ट होने से बचाया.
सम्यग् ज्ञानयज्ञ के इस भगीरथ कार्य के दौरान स्वनाम धन्य शेठ श्री कस्तूरभाई लालभाई और गुजरात के तत्कालीन उप मुख्यमंत्री श्री कान्तिलालजी घीया का आचार्यश्री से नियमित मिलना हुआ करता था. दोनों महानुभावों ने पूज्यश्री से निवेदन किया कि महाराजजी आप जो कार्य कर रहे हैं वह संघ के लिए बहुमूल्य है, परंतु अब यह कार्य संपूर्ण श्रीसंघीय
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