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यह बतलाने के लिए 'हेतो' इस तरह से हेत्वर्थे चतुर्थी का संकेत मिलता है. दार्शनिक ग्रंथों में पक्ष-प्रतिपक्ष के अनेक स्तरों तक अवांतर चर्चाएँ आती हैं. उन चर्चाओं का प्रारंभ व समापन बतलाने के लिए दोनों ही जगहों पर प्रत्येक चर्चा हेतु अलग-अलग प्रकार के संकेत मिलते हैं. श्लोकों पर अन्वय दर्शक अंक क्रमानुसार लिखे जाते थे. संधिविच्छेद बताने के लिए संधि दर्शक स्वर भी शब्दों के ऊपर सूक्ष्माक्षरों से लिखे जाते थे.
प्रत वाचन में सुगमता की ये निशानियाँ बड़े ही सूक्ष्माक्षरों से लिखी होती हैं. इसी तरह अवचूरि, टीकादि भाग एवं कभी-कभी पूरी की पूरी प्रत इतने सूक्ष्माक्षरों से लिखी मिलती है कि जिन्हें पढ़ना भी आज दुरूह होता है. विचार आता है कि जिसे पढ़ने में भी आँखों को बड़ी दिक़्क़त होती है उन प्रतों को महानुभावों ने लिखा कैसे होगा. फिर भी यह हकीकत है कि लिखा है और हजारों की तादाद में लिखा है, विहार में सुगमता से अधिक मात्रा में प्रतों को उठा कर साथ रखी जा सकें इसी एकमात्र परोपकार की ही भावना से.
श्रमण व श्रावकगण विशाल संख्या में भक्तिभाव से श्रेष्ठ कोटी के ग्रंथों का लेखन किया करते थे. श्रावकवर्ग लहियाओं के पास भी ग्रंथों को लिखवाता था. कायस्थ, ब्राह्मण, नागर, महात्मा, भोजक इत्यादि जाति के लोगों ने लहिया के रूप में प्रतों को लिखने का कार्य किया है. प्रत लिखने वाले को लहिया कहा जाता है. इन्हें प्रत में अक्षरों को गिन कर पारिश्रमिक दिया जाता था.
लेखन सामग्री - पत्र, कंबिका, गांठ (ग्रंथि), लिप्यासन (ताडपत्र, कागज आदि लिपी के आसन) सांकळ, स्याही, लेखनी, ओलिया (फांटिया) इत्यादि हुआ करती थी. ग्रंथ शोधन सामग्री - पीछी, तूलिका, हरताल, सफेदा, घूटा, गेरु इत्यादि प्रयुक्त थी.
जैन प्रतों को लिखने में व उसकी सज्जा पर इतना ध्यान दिया जाता था कि एकबार देखने मात्र पर ही पता चल जाता है कि यह जैन प्रत है या अन्य. पूर्व महर्षियों ने लेखन पर जितना ध्यान दिया उतना ही ध्यान ग्रंथों के संरक्षण पर भी दिया. ग्रंथों को लाल मोटे कपड़े या रेशमी कपड़े में बड़ी मजबूती से बाँधकर लकड़ी या कागज की बनी मंजूषाओं में सुरक्षित रखा जाता था व श्रुत को ही समर्पित ज्ञानपंचमी जैसे पर्वो पर इनका प्रतिलेखन किया जाता था. शिथिल-ढीला बंधन यह एक अपराध सा समझा जाता था. प्रतों के अंत में प्रतिलेखन संबंधी मिलने वाले विविध श्लोकों में एक अति प्रचलित श्लोक में खास हिदायत दी गई है कि "रक्षेत् शिथिल बंधनात्". इसी तरह जल, तैल, अग्नि, मूषक, चोर, मूर्ख व पर-हस्त से प्रत की रक्षा करने की हिदायतें भी मिलती है. साथ ही इन श्लोकों-पद्यों में प्रतिलेखक स्वयं के हाथों बड़े परिश्रम से लिखी गई प्रत के प्रति अपनी भावनाओं को प्रकट करते थे. __ कहते हैं कि मुद्रण युग के आ जाने से ग्रंथ पढ़नेवालों को बड़ी सुविधाएँ हुई हैं इसमें उपलब्धता, श्रेष्ठ संपादन आदि पहलुओं से एक देश तथ्य भी है परंतु वाचक हेतु अत्यंत उपकारी ऐसी विभक्ति-वचन संकेत जैसी उपरोक्त सुविधाओं से युक्त एक भी प्रकाशन अद्यावधि देखने में नहीं आया है. मुद्रण कला ने ग्रंथों की सुलभता अवश्य कर दी है परंतु कहीं न कहीं यह भुला दिया जा रहा है कि सुलभता का मतलब सुगमता - ग्रंथगत महापुरुषों के कथन के एकांत कल्याणकारी यथार्थ हार्द तक पहुँचना - नहीं हो जाता. सुगमता तो मार्गस्थमति व समर्पण से प्राप्त गुरूकृपा का ही परिणाम हो सकती हैं. अपरिपक्वों को शास्त्रों की निरपेक्ष सुलभता स्वच्छंदता जनित स्व-पर हेतु अपायों की अनिच्छनीय परंपरा खड़ी कर सकती हैं, करती हैं यह सभी महर्षियों की अनुभवसिद्ध एकमत अभिघोषणा हैं. आत्मार्थियों को इस हेतु जागृति रखनी आवश्यक है.
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