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हस्तप्रत : एक परिचय प्राचीन लेखन शैली के दो रूप हैं- प्रथम अभिलेख रूप में और द्वितीय हस्तप्रत रूप में. प्राचीन भारतीय साहित्य को जिस रूप में आज हम प्राप्त करते हैं, उनका आधार हस्तप्रत है. शास्त्र की हस्तलिखित नकल होने के कारण यह हस्तप्रत कहलाई. इसे पाण्डुलिपि भी कहा गया है. मूल प्रति कालक्रम से नष्ट होती जाती थी तथा इसकी कई प्रतियाँ तैयार होती जाती थी. प्रतिलिपि से प्रत शब्द लिया गया ज्ञात होता है. प्राचीन संस्कृति को जानने के लिए हस्तप्रतों का विशिष्ट महत्व है, क्योंकि मात्र पुरातत्वीय साक्ष्यों के आधार पर इतिहास का निर्माण नहीं हो सकता. इतिहास की पुष्टि के लिए साहित्य अनिवार्य आवश्यकता है. प्राचीन काल में ज्ञानभंडारों में हस्तलिखित साहित्य ही होता था. हस्तप्रत लेखन के देश में कई केन्द्र थे. इन केन्द्रों (लेखनस्थलों) के आधार पर अध्ययन करने पर भिन्न-भिन्न वाचना वाली प्रतों के समूह (कुलों) का ज्ञान होता है तथा समीक्षित आवृत्ति के प्रकाशन में इनका बड़ा महत्व होता है. __ हस्तप्रतें मुख्य रूप से ताड़पत्र, कागज, भोजपत्र, अगरपत्र एवं वस्त्र पर लिखी गई हैं. इनका लेखन ॐ नमः सिद्धम्, श्रीवीतरागाय नमः आदि मंगलसूचक शब्दों, भले मिंडी आदि संकेतों से प्रारम्भ कर शुभं भवतु श्रीसंघस्य आदि मंगलसूचक शब्दों, कलश व तद्सूचक 'छ' अक्षर आदि संकेतों से पूर्ण किया जाता है. हस्तप्रत के प्रकार १. आंतरिक प्रकार :- यह हस्तलिखित प्रति के रूपविधान का प्रकार है. इसके अंतर्गत लेखन की पद्धति आती है, जिसे
एक पाट (एकपाठ), द्विपाट (द्विपाठ), त्रिपाट (त्रिपाठ), पंचपाट (पंचपाठ) शुड (शूढ), चित्रपुस्तक, सुवर्णाक्षरी, रौप्याक्षरी, सूक्ष्माक्षरी व स्थूलाक्षरी आदि कहते हैं. ग्रंथों के ये भेद कागज पर हस्तप्रत लेखन परम्परा प्रारम्भ होने के बाद विशेष विकसित हुए लगते हैं. इन प्रकारों के आधार पर लहिया (प्रतिलेखक) की रूचि, दक्षता आदि का परिचय होता है. ऐसी प्रतों का बाह्य स्वरूप सादा दिखने के बावजूद अंदर के पत्र देखने पर ही इनकी विशिष्टता का बोध
होता है. २. बाह्य प्रकार :- प्राचीन हस्तलिखित प्रतें प्रायः लम्बी, पतली पट्टी के ताड़पत्र पर मिलती हैं. इनके मध्य भाग में एक
छिद्र तथा कई बार उचित दूरी पर दो छिद्र मिलते हैं. ताडपत्रों पर स्याही से व कुरेद कर दो प्रकार से प्रतें लिखी मिलती हैं. कुरेदकर लिखने की प्रथा उड़ीसा, आंध्रप्रदेश, तमीलनाडु, केरल व कर्णाटक के प्रदेशों में रही एवं शेष भारत में स्याही से ही लिखने की प्रथा रही. कागज के प्रयोग के प्रारंभ के बाद इन्हीं ताड़पत्रों को आदर्श मानकर कागज की प्रतें भी प्रारंभ में बड़े-बड़े लंबे पत्रों पर लिखी गईं. इन ताडपत्रीय पत्रों के लंबाई-चौड़ाई के आधार पर जैन भाष्यकारों, चूर्णिकारों तथा टीकाकारों ने प्रतों के पांच प्रकार बताये हैं(१) गंडी (२) कच्छपी (३) मुष्टि (४) संपुटफलक (५) छेदपाटी १. गंडी- प्रत की लंबाई और चौड़ाई एक समान हो उसे गंडी कहा जाता है. २. कच्छपी- दोनों किनारों पर सँकरी तथा बीच में फैली हुई कछुए के आकार की प्रत को कच्छपी प्रत कहा जाता है. ३. मुष्टि- जो प्रत मुट्ठी में आ जाय इतनी छोटी हो उसे मुष्टि प्रकार की प्रत कहते हैं. ४. संपुट फलक- लकड़ी की पाटियों पर लिखी प्रत संपुटफलक के नाम से जानी जाती है. ५. छेदपाटी (छिवाडी) - प्राकृत शब्द छिवाडी का संस्कृत रूप छेदपाटी है. इस प्रकार की प्रतों में पत्रों की संख्या कम
होने से प्रति की मोटाई कम होती है लेकिन लंबाई-चौड़ाई पर्याप्त प्रमाण में होती है. उपर्युक्त पाँच प्रकारों के अतिरिक्त कागज व वस्त्र पर फरमान की तरह गोल कुंडली प्रकार से लिखे ग्रंथ भी मिलते हैं जिन्हें अंग्रेजी भाषा में scroll कहते हैं. यह २० मीटर जितने लंबे हो सकते हैं किन्तु इसकी चौड़ाई सामान्य-औसत ही होती है. जैन विज्ञप्तिपत्र, महाभारत, श्रीमद्भागवत, जन्मपत्रिका आदि कुंडली आकार (स्क्रोल) में लिखे मिलते हैं. इसी तरह समेट कर अनेक तहों में किए गए लंबे चौड़े कपडे, कागज आदि के पट्ट भी मिलते हैं. सामान्यतः यंत्र, कोष्ठक, आराधना पट्ट एवं अदीद्वीप पट्ट आदि इनमें लिखे होते हैं. इनके अलावा ताम्रपत्रों एवं शिलापट्टों पर भी ग्रंथ लिखे मिलते हैं.
हस्तप्रत के पन्ने प्रायः खुले ही होते हैं किन्तु कई बार पत्रों को मध्य में सिलाई कर या बांध कर पुस्तकाकार दो भागों में
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