________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatith.org
Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir
यदि ऐसा न करते तो शोधार्थियों को संपूर्ण या बृहद् अंशवाली प्रतें ढूंढने में अनेक दिक्कतें आती. क्योंकि ये उपयोगी प्रतें सूची में आई लघु-आंशिक प्रतों, कि जो सैकड़ों तक की तादाद में मिलती है, उनके ढेर में खो-सी जाती. प्रस्तुत विभाजन कर देने से अध्येताओं को उपयोगी प्रतों के चयन में आसानी रहेगी. परंतु यदि ऐसे किसी खास अंश की ही प्रतें प्रचुरता से मिलती है तो उनके लिए सामान्य से भिन्न स्पष्ट हिस्सावाली कृतियाँ अलग से स्थापित कर के उन प्रतों को ऐसी अलग कृतियों के साथ रखा गया है. यथा - सूत्रकृतांगसूत्र का वीर थुई अध्ययन.
इस 'हिस्सा' विभावना वाली कृतियों की महत्ता प्रस्तुत सूची में पूरी तरह से ख्याल में आनी मुश्किल है परंतु भावी 'कृति अनुसार प्रतसूची' में इसकी महत्ता/ उपयोगिता सुतरां ख्याल आएगी. ११. बीजक/अनुक्रमणिका : हस्तप्रतों में कृति के बीजक/विषयानुक्रमणिका का अलग से अस्तित्व होता है. हस्तप्रतों के
प्रारंभ या अन्त में तथा कभी स्वतंत्र रूप से भी ये प्राप्त होती है. इनकी भी संतति के रूप में प्रविष्टि की गई हैं. १२. अन्तर्वाच्य : कल्पसूत्र के व्याख्यान के समय जब वह टीका आदि के आधार से पढ़ा न जा कर सीधे मूल के ही
आधार से पढ़ा जाता था तब आवश्यक स्पष्टीकरणों, पूरक सूचनाओं, कथा भागों आदि का संग्रह अलग से साथ में रखा जाता था एवं बीच-बीच में यथावसर उस प्रत का आधार लेकर व्याख्यान दिया जाता था. मूल पाठ के अंतर्गत बीच-बीच में पढ़ने की आवश्यकता होने से इन्हें अन्तर्वाच्य के रूप में जाना गया. कई प्रतों में ये अन्तर्वाच्य मूल के साथ ही बीच-बीच में लिखे मिलते हैं ताकि बार-बार दूसरी प्रत हाथ में लेनी न पड़े. सामान्यतः कल्पसूत्र के ही
अन्तर्वाच्य प्राप्त होते हैं. अन्तर्वाच्य की भाषा संस्कृत, प्राकृत या मारूगुर्जर भी हो सकती हैं. १३. टिप्पण : कृति पर यत्र-तत्र क्लिष्ट अंश पर स्पष्टतारूप सामान्यतः संस्कृत भाषाबद्ध कृति को टिप्पण नाम से जाना
जाता है. यह अवचूरि से भी संक्षिप्त होता है व विषमपदपर्याय से जरा विस्तृत होता है. क्वचित् टिप्पण नामधारी कृति हकीकत में एक तरह से टीका ही होती है - यथा 'आवश्यकसूत्र - हारिभद्री वृत्ति पर हेमचंद्रसूरि कृत टिप्पण.'
टिप्पण, अवचूरि, अवचूर्णि, विषमपदपर्याय का परस्पर का नजदीकी रिश्ता रहा है. परिवर्तित होते-होते ये कब एक दूसरे के कलेवर में आ जाते हैं यह परखना मुश्किल होता है.
प्रत के चारों ओर हांसियों में जो उपयोगी टिप्पणियाँ लिखी मिलती है उनका उल्लेख प्रत विशेष में यथायोग्य कर दिया गया है. १४. यंत्र : रेखाकृतियों से बने कोष्ठक आदि हेतु यह स्वरूप दिया गया है. १५. कथा : कृति में कई बार समयोचित कथाओं का भी उल्लेख होता है. ऐसी उल्लिखित कथाएँ पूरे विस्तार के साथ
स्वतंत्र रूप से संगृहीत मिलती हैं. १६. संक्षेप : विस्तृत कृति में से मात्र बाल जीवों/ प्रारंभिक अध्येताओं हेतु उपयोगी अंश- गाथादि को लेकर कृति की
संक्षिप्त आवृत्ति बनाई हुई प्राप्त होती है उस हेतु 'संक्षेप' स्वरूप निर्धारित किया गया है. यथा 'उपमिति सारोद्धार'. लघु, मध्यम व बृहद् वृत्तियों में लघुवृत्ति - यह संक्षेप न हो कर कर्ता द्वारा स्वेच्छा से बनाई गई अलग वृत्ति ही है.
'संक्षेप' सामान्यतः मूल का ही ज्यादातर प्राप्त होता है. १७. अन्वय : श्लोक/गाथा का जब मात्र अन्वय हो. प्रायः यह स्वरूप संस्कृत, प्राकृत पद्यमय मुद्रित साहित्य में मिलता
है. हस्तप्रतों में पाठ पर अन्वयदर्शक अंक भी उपलब्ध होते हैं. इनका उल्लेख प्रतविशेष में कर दिया गया है. १८. सम्बद्ध : जब कोई कृति किसी अन्य कृति से सीधी सम्बद्ध हो परंतु टीका, अनुवाद आदि न हो उस हेतु यह
स्वरूप निर्धारित किया गया है. जैसे- भगवतीसूत्र की गहुंली इत्यादि. १९. प्रक्रिया : सामान्यतः संस्कृत, प्राकृत व्याकरण के अपनी विवक्षा अनुसार मात्र उपयोगी सूत्रों को सामान्यतः
साधनिका क्रम से प्रस्तुत करती हुई टीका को प्रक्रिया कहते हैं. प्रक्रिया की भाषा संस्कृत होती है. जैसेहैमलघुप्रक्रिया, सारस्वतप्रक्रिया लघुसिद्धान्त कौमुदी आदि.
16
For Private And Personal Use Only